बौना मन का आस्मां कर रहना पड़ा है
था क्या नाम मेरा भूलाना पड़ा है
किसी ने ना देखा क्या मेरा है मुझमें
क्यों बेनूर है नगीना बताना पड़ा है ,
सांसों पे पहरा है ज़ज्बातों पे कब्ज़ा
कला,कल्पना,जुबां पर ताला जड़ा है
शिक़स्त से पड़े है ख़वाबों के टुकड़े
फ़नकार ख़ल्क़ से अनजाना पड़ा है ,
मोमबत्ती के मानिन्द जलती रही हूँ
घर में कर उजाला पिघलती रही हूँ
बस अंतर्शिखाएं मेरी अंतरंग सहेली
लेखनी को हमसफ़र बनाना पड़ा है ,
ग़र चिंगारियों को सह दी होतीं हवाएं
मचातीं धमाल मूर्छित हाट में कलाएं
मेरा हाल जानता बस मेरा आईना है
तसल्ली कि संग शैल खजाना पड़ा है ,
किसी जौहरी की ग़र पारखी निग़ाहें
तराशकर निखारतीं ख़ाब की मीनारें
बेक़द्र नायाब हीरा चमकता जहाँ में
ये शहरे अज़नवी को बताना पड़ा है ,
चौखट की जंज़ीरों बँधी हुई आरज़ुवें
बिना ऊफ़ के सैलाब दबाना पड़ा है
मन का परिन्दा ना हो कहीं आवारा
जकड़ बेड़ियाँ इसे समझाना पड़ा है ,
ख़ामोशी से ज़िस्म जलाया दीया सा
तबस्सुम का परचम लुटाना पड़ा है
अरमानों को वनवास देकर हूँ जीती
बड़ी पेचीदा ज़िन्दगी निभाना पड़ा है ,
खिलना चाहती थी संग बहारों के भी
मगर संग मौसम का निभाना पड़ा है
जमीं ख़्वाबों की मेरी सूरज सी तपती
अश्क़,शब की पलकों छुपाना पड़ा है ,
ये दरिया समंदर में मिला चाहता था
तवज्ज़ो का वाज़िब सिला चाहता था
हसरतों की प्यास,रख शानों जनाज़ा
मायूसी के छत ज़ख़्म सुखाना पड़ा है ,
तमन्नाओं की टूटी ये किरिचें हैं देखो
ग़म के कतरों से पन्ने भिगाना पड़ा है
बेबसी का अभ्र भी कितना अज़ब है
घटाओं को चुपचाप बरसाना पड़ा है ,
कोने के दीवट सी टिमटिमाती दीया हूँ
आज़ारे-आरज़ू छिपा मुस्कराना पड़ा है
क़फ़स में आज़ादी का पाबन्द ये पखेरू
क़ैद मन का बुलबुल तड़फड़ाना पड़ा है ,
ज़िन्दगी की जागीर लूटी किस्तों-किस्तों
बेसुर,ताल,लय पे पांव थिरकाना पड़ा है
खेलें शब्दों की लहरों से आकुल व्यथाएं
दर्द,ग़ज़ल,गीत,शायरी में पिराना पड़ा है ,
उजालों से मांगें क्या अपाहिज तमन्ना
शाहकारों से किरदार ये बेगाना पड़ा है
कब महफ़िलों ने पूछा इस रोशनी को
ज़ीस्त हाशिए पे बेनाम बिताना पड़ा है ,
कर्तव्यों की बेदी की होम मैंने ज़िंदगानी
घुट-घुट कर गिरेबान में समाना पड़ा है
हमसफ़र ना मन्जिल ना कारवाँ है कोई
बौना मन का आस्मां कर रहना पड़ा है ,
किसी ने न देखा क्या मेरा है मुझमें
क्यों बेनूर है नगीना बताना पड़ा है ।
शैल सिंह