गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

" ओ पत्थर के दिल वालों,अब देखना मेरी मौज-ए-रवानी "

'' ओ पत्थर के दिल वालों,अब देखना मौज-ए-रवानी मेरी ''

वीरां-वीरां हुआ गुलशन,फूलों ने भी महकना छोड़ दिया
जब मन से नहीं अनुबन्ध,रूह ने भी भटकना छोड़ दिया
औरों ने ठिकाना बना लिया,जब सुना सनम की बस्ती में
घटायें तो घिरीं सावन सी, आँखों ने बरसना छोड़  दिया ।

वक़्त के हाथों जख़्मों पर,ख़ुद वक़्त ने मरहम लगा लिया
इक वक़्त था जलते थे,शमां यादों का जलाना छोड़ दिया
क्यों ज़ख्म जहाँ को दिखलाऊँ,कर दी दर्द दफ़न सीने में
देख नासूरों को  तिल-तिल,घुट-घुट मर जाना छोड़ दिया ।

मैं नहीं वो परवाना फतिंगा,जल ख़ाक़ में ज़िस्म मिला दूँ
उड़-उड़कर बैठना दीयों पर,जुनूँ में मंडराना छोड़ दिया
दे दे सदाएं बस्ती-बस्ती,मेरी वफ़ा का लाश लिए फिरना
ये दरों-दीवारें दहलीजें,खुला दरीचा रखवाना छोड़ दिया ।

जिस शज़र के हर शाखाओं पर,आजाद परिंदा रहता था 
उस शाख़ की कोमल कलियों ने,भी इठलाना छोड़ दिया
चिताएं सजा कर चाहतों की,दरिया में राख बहा डाली मैं
क्यूँ देखूँ अदा काँटों की,दिल फूलों से लगाना छोड़ दिया ।

गुंथे जिनके जिक्रों के मनके,मैंने बंद,शेर,ग़ज़ल रुबाई में
उनमें डूब के अब गाना,अफ़सानों का तराना छोड़ दिया
कभी दिल शाद किये थे,काढ़ कसीदे जिनकी तारीफ़ों से
जो क़त्ल किया दिल का,उसे  क़ातिल बताना छोड़ दिया ।

सजा जिन ख़्यालों के गुल से बज़्म,अष्ट पहर शिराओं में
उसकी धृष्ट हक़ीक़त देख,दिल को धड़काना छोड़ दिया
मुझ पर तो तजरबे बहुत किए वो,मैंने भी तजरबा सीखा
कोई इल्ज़ाम ना उसपर आये,इल्ज़ाम लगाना छोड़ दिया ।

कैसे कहूँ उसे शिद्दत से कभी,हर लम्स शदीद से चाही मैं
उस सैय्याद की बुलबुल ने ही,वफ़ा आजमाना छोड़ दिया
मेरा ज़िगर नहीं संगमरमर का,दिल पे चोट ख़ुशी से खाए
कोई रुपसी देख ज़ेहन उसके,नज़रों में बसाना छोड़ दिया ।

गिर-गिर के संभलना आ तो गया,पर घायल होने के बाद
हुस्न ज़ाम नहीं मैख़ाने का,सागर सा छलकाना छोड़ दिया
ख़ता दोहराने की ताब नहीं,जाने कैसे ख़ता इक बार हुयी
फिर दिल का जनाज़ा निकले,देना वो नजराना छोड़ दिया ।

कभी काज़ल के करिश्मों सा,चमका था चाँद सा नज़रों में  
तोड़ा ऐसा ऐतबार के चाके-दिल,नज़रें मिलाना छोड़ दिया
कभी जिन केशों की वेणी में,फूल हजारों वफ़ा का टाँके थे
उसे देख अदा से लहराना,लटें रुख़ पर गिराना छोड़ दिया ।

क्यों ख़ुद को रखूँ भूलावे में,ग़म ढाल कर ग़ज़लों,गीतों में
दिल के नगर से नाम मिटा,राहत का ठिकाना खोज लिया
कभी ज़िक्र ज़ुबां ना लाऊँगी,मैंने कसम से सौगन्ध खाई है
हर चिन्ह खुरचके फ़ेंक दिया,जीने का ख़ज़ाना खोज लिया ।

अरे पत्थर के दिल वालों,अब देखना मौज-ए-रवानी मेरी
बहती हुई दरिया ख़ुद मैं,ख़ुद ही राह बनाना सीख लिया
कहीं इस भीड़ का हिस्सा बन,मैं भींड़ में ही खो जाऊँ ना
मैंने ख़ुद ही शहर में ख़ुद की पहचान बनाना सीख लिया ।

मनके--माला ,  शदीद--गहराई ,  
चाके-दिल--घायल हृदय,

                                         सर्वाधिकार सुरक्षित       
                                                       शैल सिंह



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