मंगलवार, 13 सितंबर 2016

'' ग़ज़ल '' हो गई देर झिझक की गली में अगर

 हो गई देर झिझक की गली में अगर


लब से बोलो न बोलो तुम कुछ मगर
हकीक़त वयां करतीं अंतर्मन की निग़ाहें तुम्हारी,

मौन की ये समाधि सच ना बोले भले
खोल देतीं राजे-उल्फ़त दिल की किताबें तुम्हारी,

लफ़्ज़ों की शक्ल में खिल जाते कँवल
क़शमक़श में खनकती मगर मुस्कुराहटें तुम्हारी,

धड़कते हुए दिल के अहसासात को
गुनगुनाती बेसाख़्ता दीवानगी सुन ग़ज़लें तुम्हारी,

बेतकल्लुफ़ जुबां पे लहरों को आने दो
ज़माने को दिखाओ हसीं नशेमन तमन्नाएँ तुम्हारी,

अनजान हम भी नहीं पता आशिकी का
क्यूँ रोकतीं इज़हार से संकोचों की सरहदें तुम्हारी,

कुछ तो बोलो भारी लगे लम्हा-लम्हा
क्यों पहेलियों में उलझा रखीं तुझे वर्जनाएं तुम्हारी,

चराग़ दिल का हम भी जलाये हैं बैठे
आसान होंगी भला कैसे आख़िर समस्याएं तुम्हारी,

हो गई देर झिझक की गली में अगर
कठपुतली बन नाचेंगी दिलकशीं आरजुवें तुम्हारी ।

                                                  शैल सिंह


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें