सोमवार, 10 दिसंबर 2018

उर का गीला गलीचा है अब तलक

उर का गीला गलीचा है अब तलक

बहार बनकर तुम आये चमन में मेरे
ले गये लूट दिल की विरासत मेरी
जिंदगी भर का दर्द देकर उपहार में
मुड़के देखा न कभी कैसी हालत मेरी ।

रूह में इस कदर तुम समाये हुए
भूल जाऊं तुम्हें इतना आसां नहीं
तुम परखते रहे अजनबी की तरह
धड़कनें अब तो इतनी भी नादां नहीं ।

तुम छुपाते रहे कुछ उजागर न हो
मैंने भी तो जतन कुछ किए कम नहीं
पर इक दूजे के अहसासों की खबर
से थे परिचित ये भी तो कुछ कम नहीं ।

था माना मिलन कुछ पलों का सही
चन्द लमहों में धार प्रीत की जो बही
उर का गीला गलीचा है अब तलक
जो नैनों ने नैनों से बातें दिल की कही ।

चाँद आकार लेता जब आकाश में
रजनी होती जब रौशन नहा चाँदनी में
बावरी यादें खोल स्मृतियों के द्वार
गुदगुदा जातीं बांधकर समां चाँदनी में ।

ये गहबर चाँदनी ये सुहानी सी रात
जिनकी यादों का झोंका बहा लाई है
वो तो कब का शहर छोड़कर जा चुके
निगोड़ी फिर क्यूं मुंडेरों पे गहनाई है ।

                                        शैल सिंह

सोमवार, 25 जून 2018

गज़ल ' मुझसे बिछड़ने के बाद '

 मुझसे बिछड़ने के बाद


मुझमें ख़ामियाँ ढूंढ़ते-ढूंढ़ते
भूल गए तुम मेहरबानियां मेरी,

वक़्त बदला जरूर बदली नहीं मैं
कब मिटा पाये तुम निशानियां मेरी,

सुना है चर्चे जुबान पर सबके आज भी 
सुनाते बड़े चाव से हो तुम कहानियां मेरी,

इतना आसां नहीं भूल जाना इस नाचीज़ को 
पीछा करेंगी तेरा ताउम्र बेज़ुबां परछाईयां मेरी,

चाँदनी रात में जब होगे तनहा छत की मुंडेर पर
तड़प कर रह जाओगे आयेंगी याद अंगड़ाईयां मेरी,

खुला रखना गुजरे वक़्त के यादों की सारी खिड़कियां
बेआवाज़ देंगी दस्तक़ क्यूँकि बेवफ़ा नहीं वफ़ाइयाँ मेरी,

वक़्त औ हालात लेकर चले थे साथ,दिल पर हुकूमत करने
मापे हद मोहब्बत की,न दिल में उतर दिल की गहराईयां मेरी,

तकेंगे दरों-दीवार तुझे अज़नबी की तरह मुझसे बिछड़ने के बाद
संजीदा हो बयां करना बेबाक़,चंद अल्फ़ाज़ में सही अच्छाईयां मेरी।

                                                                शैल सिंह




मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

'' ग़ज़ल '' '' लौटा सको अगर तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा ''

लौटा सको अगर तो लौटा दो वो हसीं वक़्त मेरा 

तरस जायेंगे बन्द दरवाजे तेरे
कभी दर पे आ तेरे दस्तक ना दूँगी
मेरे अहसानों का मोल चुकायेगा क्या तूं
कभी अब अपने तजुर्बों को ना शिक़स्त दूँगी
लौटा सको अगर तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा
जो लूट गया नाजायज़ वो किसी को हर्गिज़ न दूंगी।

देर ना लगी है फितरत बदलते
इल्म था ये मगर वफ़ादारी निभाई
खाई है चोट दिल पर सिला ये मिला है
ज़ख़्म होता वदन पे देता दहर को दिखाई
वक़्त का करिश्मा भी बदलेगा करवट देखना 
क्या किसी को दूँ इल्ज़ाम जब नादां ख़ुद ठग आई।

ख़ामोशियाँ मेरी मुझे कोसती हैं
दर्द की ये इन्तेहा बयां कर सकूँ ना
छींटे किरदार पर न कत्तई बर्दाश्त होंगे
संग हवाओं के भी चलने का हुनर ला सकूँ ना
क्यूँ शख़्सियत नीलाम मेरी फ़रेबों के बाज़ार में
के नफ़रत बेवफ़ाओं से भी मुकम्मल कर सकूँ ना। 

                                             शैल सिंह 

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

'' गजल '' ऐसा मय पिला गईं दो आँखें चलते-चलते,

              '' गजल ''


शेर..'' गजल '' ऐसा मय पिला गईं दो आँखें चलते-चलते,


हर्फ़ उल्फ़त के पढ़ लेना ग़ौर से
लफ्जों की पोशाक पेन्ही हैं ऑंखें
अल्फ़ाज़ भले ही मौन रहते हों
दिल की आवाज़ होती हैं आँखें ।

अफ़साने दिल के सुना देते आँखों-आँखों
जुबां कंपकंपा गयी जो बात कहते-कहते,

बज़्म में बेसाख़्ता मिलीं जो निग़ाहें हमारी
कुछ तो बुदबुदा गईं पलकें झुकते-झुकते,

सूनी नाद हमने इक दूजे के धड़कनों की
क्यूँ जाने लड़खड़ा गए क़दम बढ़ते-बढ़ते,

मस्ती छाई सांसों में मुस्कराये है ज़िन्दगी
ऐसा मय पिला गईं दो आँखें चलते-चलते,

सजा रखी रात-दिन ख्यालों की महफ़िल
दबे पांव आता है कोई रोज महके-महके,

फ़्रेम में नयन के मढ़ा कर तस्वीर उनकी
लुत्फ़ खूब उठा रहा हूँ ख़्वाब बुनते-बुनते,

उकेरुं रेखाचित्र रोज दिल के कैनवास पे
क्या-क्या सोचूँ तूलिका से रंग भरते-भरते,

ज़माने का डर होता न चाहत के दरमियाँ
खोल के किताब रखता दिल हँसते-हँसते ।
                                   शैल सिंह

बुधवार, 31 जनवरी 2018

'' मुझमें शराफ़त बहुत है ''

मुझमें शराफ़त बहुत है 


मिलीं नेकी करने के बदले हैं रुसवाईयां 
ख़ुद मुझसे ही मुझको शिकायत बहुत है।

वक़्त जाया क्यों करना कभी बेग़ैरतों पर
सख़्त मुझसे ही मुझको हिदायत बहुत है।

कैसे एहसान फ़रामोश होते मौका परस्त
पेश अज़नबी से आते मन आहत बहुत है।

जिनके लिए सबको छोड़ आज़ तन्हा हुए
ख़ेद वे करते अब मुझसे क़वायद बहुत हैं।

परख से मिली सीख ग़र कुछ मेरी आदतों
वक़्त की करना ख़ुद के हिफ़ाज़त बहुत है।

मुश्क़िल घड़ी में सदा साथ जिनके खड़े थे
स्वार्थसिद्ध होते वे करते सियासत बहुत हैं।

करे तौहीन,मानभंग जो भलमनसाहत की
ऐसे ख़ुदग़र्ज़ों से मुझको हिक़ारत बहुत है।

ज़रुरतमंदों को अब जरा करना अनदेखा 
चूक होती थोड़ी मिलती जलालत बहुत है।

बह जज़्बातों की रौ में ग़म बाँटे थे जिनके
बदले उनके सुर मुझको मलानत बहुत है। 

अज़नबी हो गए हम अब जैसे उनके लिए 
भीड़ संग क्या चले आई नफ़ासत बहुत है।

जिनके हर राज़ जज़्ब मैंने दामन किये थे  
वे नये यारों संग दिखाते नज़ाक़त बहुत हैं।

चोट खाकर सीख शैल अपनी क़द्र करना
तवज्ज़ो देने में वे करते किफ़ायत बहुत हैं।

उनको सरेराह कर दूँ मैं नंगा ग़र चाहूँ तो   
मगर मुझमें अबभी बची शराफ़त बहुत है।


                                       शैल सिंह