फिर भी मन का प्यासा प्याला रीता
ये कैसा मलाल है ज़िंदगी
कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी
भीड़ में भी हूँ और तन्हा भी
मन का ना कर पाने का मलाल
सब कुछ देखते समझते
स्थितियों की बेबसी का मलाल
कला,दक्षता,ख़ूबी,हावी,हुनर,फ़न
को बेबसी की मृतशैय्या पर
कराहते देखने का मलाल
संवार कर रखूँ तो भी बीमार
निखारकर रखूँ तो भी बिमार
इन्हीं बेबसी के लम्हों की तड़प को
अपने लफ़्ज़ों से नवाज़ा है मैंने
कविता,शायरी,गीतों,ग़ज़लों की
शक्ल और सूरत के रूप में
अपनी भावनाओं को उतारा है मैंने
बग़ावत करूँ तो तनाव में
चुप रहूँ तो तनाव में
ये कैसा मलाल है ज़िंदगी
कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी
एक-एक पल एक-एक दिन के रूप में
ज़िन्दगी का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा
आँखों के सामने से निकलता जा रहा
मन के भीतर कुछ टूटता रहा,कुछ कसकता रहा
मैं बिखरती रही,उमर बीतती गई
ना मन का तम छँटा ना मन की आग बुझी
बीते वक़्त को याद कर पछताने के लिए
मन को धैर्य से बाँध-बाँध अवसर गँवाती गई
बस कल्पनाओं की चादर तले
नभ की चाह बाँधे आँचल में
जीवन का लहराता हुआ सागर
फिर भी मन का प्यासा प्याला रीता
ना जाने ये कैसी अनबूझ प्यास है
ना जाने ज़िन्दगी से ये कैसी आस है
ये कैसा मलाल है ज़िंदगी
कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी
कुछ कीर्तिमान रचाने की अभिलाषा
कुछ जीवन के इतिहास में
सुनहरा अध्याय जोड़ने की अभिलाषा
प्रतिकूल परिस्थितियों में जज़्ब होकर
रह गए साँसों के जज़्बे
काँटों भरी पथरीली पगडंडियों पर
बिखरकर रह गए हौसले मेरे
सपनों के कगार पर खड़े रह गए
जुनून और दृढ़ ईच्छाशक्ति के फ़ौलादी इरादे
मन के दर्पण में निहारती
अपने सपनों का संसार
मनोभावों को साकार रूप दिया है
मेरी लेखनी की मूक स्याही ने
जो मन के हाहाकार से छेद,बेंध पन्नों को
कराती हैं आत्मबोध
यहीं आकर ठहरती है मेरी ज़िद
यहीं पूर्ण होता सन्तोष
ये कैसा मलाल है ज़िंदगी
कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी ?
शैल सिंह
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