ग़ज़ल
गुजर गया जमाना तेरे इंतरज़ार में
ढल गया शबाब ढल गई उमर
बिखर गया ख़वाब तेरे इन्तज़ार में ,
सब कुछ लूटा दिया हमने तेरे ऐतबार में
सीने में दम घुटा तबस्सुम की लब पे ताब
जले खुशफ़हम का दीया तेरे इन्तज़ार में ,
कुछ भी नहीं है पास मेरे अज़ाब के सिवा
क़हर भी तुम्हारा सोज़े ग़म भी तुम्हारा
कुछ तो चलो है पास मेरे वफ़ा के सिवा ,
यूँ तो गुजर गई सुबह हर रोज की तरह
नाउम्मीद कर गई शाम हर रोज की तरह
दर से गुजर गई हवा हर रोज की तरह ,
जग से छुपाये रखा तुम पर ना आँच आये
पोंछो ना आँसुओं को कहीं ये भी छल न जाये
गवारा नहीं कि यादों के ग़फ़लत में रहें साये।
शैल सिंह
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