सिला मजबूरी का दे लिपट गर रो लेते
शब्द कम पड़ गये छितरे-छतनारे भी
हाले-दिल,दर्दे-ग़म सुनाते-सुनाते उन्हें
दरअसल उन्हें सुनने में हमदर्दी न थी
हाले-दिल,दर्दे-ग़म सुनाते-सुनाते उन्हें
दरअसल उन्हें सुनने में हमदर्दी न थी
हमने भी गुज़ारिश की कोशिश न की ।
देखे अंदाज़ बेपरवाह सा उठने का था
मुअत्तर आँखें न देखा पलट इक दफ़ा
यतीम से ढले क़ीमती अश्क़ आँखों के
यतीम से ढले क़ीमती अश्क़ आँखों के
हमने भी नुमाईश की कोशिश न की
झांक अतराफ़ में लेते तो रूख़्सत होते
सिला मजबूरी का दे लिपट ग़र रो लेते
बदलते रूत जैसे देखा उनकी चाल थी
सिला मजबूरी का दे लिपट ग़र रो लेते
बदलते रूत जैसे देखा उनकी चाल थी
हमने भी सिफारिश की कोशिश न की ।
क्या-क्या नुस्खे आज़मा सजी उन लिए
ना देखा कुछ कहा दफ़अतन चल दिए
कुछ अना की दीवारें मन्ज़िलें भी जुदा
हमने भी आज़माइश की कोशिश न की ।
अन्त समय में मिला आखिर तो दर्द ही
सोचा कसमें,वादे,तसव्वुर याद दिला दूं
बेमसरफ़ सफ़र रहा मुहब्बत बेअर्थ भी
हमने भी रंच ख़ाहिश की कोशिश न की ।
छतनारे—-विस्तृत , मुअत्तर—भींगा हुआ,
अतराफ़—अन्तर्मन , दफ़अतन—यकायक
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें