गुरुवार, 21 नवंबर 2019

'' पी आँसुओं का सैलाब समन्दर हूँ बन गई ''


क्यों आते हो मेरे ख़्यालों में तुम बार-बार 
दिल के साज़ों का छेड़ जाते हो तार-तार
मेरी वीरानियाँ भी महकतीं सदा फूल सी
क्यों तन्हाईयों से करते यादों का व्यापार ,

रोज दर्द दहकता हुआ  छोड़ कर सीने में
अक़्सर आजमाते हो टूट बिखर जाने को
हो गई दिल्लगी दिल के किस सौदाग़र से
कि चाहतें हुईं मज़बूर तुम्हें भूल जाने को ,

किस कुसूर की सजा में थी बेवफाई तेरी
वफ़ा की दरिया पहल की तूफां लाने की
क्या कसर बाकी रह गयी थी मेरे प्यार में
असाध्य मर्ज़ मिली तुमसे दिल लगाने की ,

तेरे ही दिए दर्दों की कैफ़ियत है ये ग़ज़ल
रियाज़ रोज करूं दर्द छिपा गुनगुनाने की
किन कण्ठों से गुनगुनाऊं जज़्बात सुरों में
भींगा लफ़्ज़ भी उदास आज शायराने की ,

न नफ़रत मुक़म्मल न मिटा पाना याद ही   
करके तेरे बग़ैर जीने की नाकाम कोशिशें
पी आँसुओं का सैलाब समन्दर हूँ बन गई
बेलग़ाम कश्ती में खे रही तमाम ख़्वाहिशें ,

बात करना ना आया तुझसे तेरे अंदाज में
रहता टूटे सपनों के सच होने का इन्तजार 
जो आँखें नज़रअंदाज़ की हैं आज बेतरह   
वही नज़रें कभी ढूँढ़ेंगी मुझे हो के बेक़रार ,

आँखों से उमड़े  दर्द शोर करें ख़ामोशियाँ
सबने जलसों में देखा मुझे बस हँसते हुए
छुप के रोता दिल नैनों में तड़प दीदार की
देखा न किसी ने भी तन्हाई में तड़पते हुए , 

कैफियत--विवरण,हाल

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें