शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

चोरी मेरा करार हुआ

  चोरी मेरा क़रार हुआ  

सोने चाँदी जैसा ही यह 
  अमोलक एक दौलत है 
इसके बिना अधूरा सब 
  सब इसके ही बदौलत है ,

चोरी तो चोरी है चाहे 
  सुकूँ की हो या चैन की 
चोरी मेरा क़रार हुआ 
  नींद गई अब नैन की ,

इत्तफ़ाक से मिलीं निग़ाहें 
  मिराकी दिल हुआ बेज़ार 
धराशाई हुई दिल की हवेली 
  बेचारा दिल हुआ आज़ार ,
कंगाल हुई लूटा आशियाँ 
  कोई ख़्वाब चुराया रैन की 
चोरी तो ........ । 

नैनों की अहमक़ आश्ती ने 
  मुझपे कैसा एहसार डाला 
आपे से गुजरी आपे में रहना 
  आमा दिल को ये असमार मिला ,
अफ़गार किया मन का घोसला 
   छुप-छुप वैनों से नैन की 
चोरी तो.……। 

नैनों की भूल भूलैया में 
  इकलौता दिल भी खोया 
रातें कटी शैल आँखों में 
  बेसुध सारा जग है सोया 
आबशार हुईं आँखें अज़हद 
  अफ़साना कौन सूने बेचैन की ,
चोरी तो……। 

अबसार में मेरे नैरंग सी   
  तस्वीर उसी की रहती 
अमलदार बन दिल के मेरे 
  रनवास में फिरती रहती ,
छल से नक़ब लगा हुआ 
चम्पत,गोली सूंघा कुनैन की ,
चोरी तो.......।  

अर्थ --  मिराकी --सनकी ,
आजार --बीमार , अहमक---मूढ़ ,मुर्ख 
आश्ती --मित्रता ,एहसार --घेरा डालना 
आमा --अँधा , असमार --फल , अफ़गार --घायल 
आबशार --जल प्रपात , अज़हद --अत्यधिक ,
अबसार --ऑंखें , नैरंग --जादू , अमलदार --प्रशासक । 

                                                      शैल सिंह 

रविवार, 26 जुलाई 2015

ये पता तो चले वो खफ़ा किसलिए हैं

ये पता तो चले वो ख़फ़ा किसलिए हैं


ये पता तो चले वो ख़फ़ा किसलिए हैं
क्यों हमें देखकर हैं नजर यूँ फेर लेते
ये पता तो चले ये अदा किसलिए है ।

जिस गली से गुजरते रोज हम सैर को
उस गली से भी आजकल मुँह मोड़ लेते
हर क़ायनात जो होती अब मुझसे जवां
लुत्फ़े महफ़िल भी हैं बेरुखी से छोड़ देते
ये पता तो चले ये अलविदा किसलिए है ।

लड़ाई ना झगड़ा ना कुछ शिकवे गिले हैं
बड़े सादगी से किया वार जब भी मिले हैं
उनकी तदबीर से झलकती रंजिदगी सदा
मुझको खबर ही नहीं की कब मैंने  खता
ये पता तो चले वो ग़मज़दा किसलिए हैं।

ये पता तो चले वो खफ़ा किसलिए हैं
क्यों हमें देखकर हैं नजर यूँ फेर लेते
ये पता तो चले ये अदा किसलिए हैं ।

तदबीर----सूरत 
                                             शैल सिंह 

बुधवार, 22 जुलाई 2015

उर्दू ग़ज़ल

               उर्दू ग़ज़ल


ये औरों पे जो उठती हैं ख़्वामख़्वाह उंगलियाँ
आबगीना सामने क्यों नहीं रख लेतीं उंगलियाँ ,

अजीरन बना दे ज़ीस्त ग़र  कोई भी खुदर्बी
ख़ैरख़्वाह बने रहना ना कभी बनना खुदर्बी ,

तेरे खुसूसियत के नूर की ये दुनिया हो दीवानी
तुम्हारे दर्क के दरख़्शाँ की हर लब पे कहानी ,

ख़ुशतबा  तुम्हारी ख़ुशमिज़ाजी  ही पहचान हैं
ख़ुशनूद तुझसे महफ़िलें महफ़िलों की जान है ,

जलाल से तेरे शैल खार खाती है क्यों दुनिया
जमहूर को दिखा शैल जलाली की क्या दुनिया ।

आबगीना--दर्पण ,   अजीरन ---दूभर,
खुदर्बी --घमंडी ,  ख़ैरख़्वाह---मित्र ,भला चाहने वाला
खुसूसियत--विशेषता ,   दर्क ---ज्ञान,
दरख़्शाँ --प्रकाश,चमक ,  खुशतबा --विनोदी ,मजाकिया
खुशनूद ---संतुष्ट,प्रसन्न ,   जलाल ---तेज ,प्रताप
जमहूर---अवाम ।                                
                                                     शैल सिंह



मंगलवार, 21 जुलाई 2015

ग़ज़ल

            ग़ज़ल


गुजर गया जमाना तेरे इंतरज़ार में 
ढल गया शबाब ढल गई उमर 
बिखर गया ख़वाब तेरे इन्तज़ार में ,

सब कुछ लूटा दिया हमने तेरे ऐतबार में
सीने में दम घुटा तबस्सुम की लब पे ताब 
जले खुशफ़हम का दीया तेरे इन्तज़ार में ,

कुछ भी नहीं है पास मेरे अज़ाब के सिवा 
क़हर भी तुम्हारा सोज़े ग़म भी तुम्हारा 
कुछ तो चलो है पास मेरे वफ़ा के सिवा ,

यूँ तो गुजर गई सुबह हर रोज की तरह 
नाउम्मीद कर गई शाम हर रोज की तरह 
दर से गुजर गई हवा हर रोज की तरह , 

जग से छुपाये रखा तुम पर ना आँच आये 
पोंछो ना आँसुओं को कहीं ये भी छल न जाये 
गवारा नहीं कि यादों के ग़फ़लत में रहें साये। 

                                 शैल सिंह