शनिवार, 23 नवंबर 2019

ग़ज़ल '' मोहब्बत एक हसीं है ख़ाब ''

      मोहब्बत एक हसीं है ख़ाब


वो मेरे दिल की धड़कन हैं
मैं उनके दिलो जां की धड़कन हूँ
अगर आँखों में नहीं आतीं मेरे चैन की नींदें
तो उनके भी ख़्यालों की मैं मीठी-मीठी तड़पन हूँ। 

वो मेरे हर जिक़्रों में हरदम
मैं उनके हर जज़्बातों में हरदम
क़रन वो भोर के मैं उनकी शाम शीतल सी
मैं उनकी दीवानगी में तो वो मेरे ख़्वाबों में हरदम।

जब से दीदार हुआ उनका
हर वक्त ऑंखें बेक़रार रहती हैं
यकीं इतना मुझे ऐसे ही वो भी बेज़ार रहते हैं 
वो मेरे लिए हैं खास मेरी भी उन्हें परवाह रहती है।

दिल की बेबसी का आलम
दिल समझता नैन हैरान रहते हैं
अहसासों को समझने को बिछड़ना जरुरी है  
मिठास दर्दों में भी होती भले हम परेशान रहते हैं।

मोहब्बत एक हसीं है ख़ाब
ग़र ख़ुदा किस्मत से ख़फा न हो 
ज़रा सी ज़िन्दगी में बेहिसाब मेला मुरादों का
हसीं हर क्षण ख़ियाबां सा ग़र मुहब्बत जुदा न हो।

क़रन--किरण , ख़ियाबां--पुष्पवाटिका
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह 

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

'' पी आँसुओं का सैलाब समन्दर हूँ बन गई ''


क्यों आते हो मेरे ख़्यालों में तुम बार-बार 
दिल के साज़ों का छेड़ जाते हो तार-तार
मेरी वीरानियाँ भी महकतीं सदा फूल सी
क्यों तन्हाईयों से करते यादों का व्यापार ,

रोज दर्द दहकता हुआ  छोड़ कर सीने में
अक़्सर आजमाते हो टूट बिखर जाने को
हो गई दिल्लगी दिल के किस सौदाग़र से
कि चाहतें हुईं मज़बूर तुम्हें भूल जाने को ,

किस कुसूर की सजा में थी बेवफाई तेरी
वफ़ा की दरिया पहल की तूफां लाने की
क्या कसर बाकी रह गयी थी मेरे प्यार में
असाध्य मर्ज़ मिली तुमसे दिल लगाने की ,

तेरे ही दिए दर्दों की कैफ़ियत है ये ग़ज़ल
रियाज़ रोज करूं दर्द छिपा गुनगुनाने की
किन कण्ठों से गुनगुनाऊं जज़्बात सुरों में
भींगा लफ़्ज़ भी उदास आज शायराने की ,

न नफ़रत मुक़म्मल न मिटा पाना याद ही   
करके तेरे बग़ैर जीने की नाकाम कोशिशें
पी आँसुओं का सैलाब समन्दर हूँ बन गई
बेलग़ाम कश्ती में खे रही तमाम ख़्वाहिशें ,

बात करना ना आया तुझसे तेरे अंदाज में
रहता टूटे सपनों के सच होने का इन्तजार 
जो आँखें नज़रअंदाज़ की हैं आज बेतरह   
वही नज़रें कभी ढूँढ़ेंगी मुझे हो के बेक़रार ,

आँखों से उमड़े  दर्द शोर करें ख़ामोशियाँ
सबने जलसों में देखा मुझे बस हँसते हुए
छुप के रोता दिल नैनों में तड़प दीदार की
देखा न किसी ने भी तन्हाई में तड़पते हुए , 

कैफियत--विवरण,हाल

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

सोमवार, 23 सितंबर 2019

गजल '' सिला मजबूरी का दे लिपट गर रो लेते ''

सिला मजबूरी का दे लिपट गर रो लेते


शब्द कम पड़ गये छितरे-छतनारे भी
हाले-दिल,दर्दे-ग़म सुनाते-सुनाते उन्हें
दरअसल उन्हें सुनने में हमदर्दी न थी
हमने भी गुज़ारिश की कोशिश न की ।

देखे अंदाज़ बेपरवाह सा उठने का था
मुअत्तर आँखें न देखा पलट इक दफ़ा 
यतीम से ढले क़ीमती अश्क़ आँखों के   
हमने भी  नुमाईश की  कोशिश न की

झांक अतराफ़ में लेते तो रूख़्सत होते
सिला मजबूरी का दे लिपट ग़र रो लेते
बदलते रूत जैसे देखा उनकी चाल थी
हमने भी सिफारिश की कोशिश न की ।

क्या-क्या नुस्खे आज़मा सजी उन लिए 
ना देखा कुछ कहा दफ़अतन चल दिए  
कुछ अना की  दीवारें मन्ज़िलें भी जुदा
हमने भी आज़माइश की कोशिश न की ।

अन्त समय में मिला आखिर तो दर्द ही
सोचा कसमें,वादे,तसव्वुर याद दिला दूं
बेमसरफ़ सफ़र रहा मुहब्बत बेअर्थ भी  
हमने भी रंच ख़ाहिश की कोशिश न की ।

छतनारे—-विस्तृत , मुअत्तर—भींगा हुआ, 
अतराफ़—अन्तर्मन ,  दफ़अतन—यकायक
 

      सर्वाधिकार सुरक्षित
                         शैल सिंह

रविवार, 8 सितंबर 2019

थोड़ा हास-परिहास,,व्यंग्य

थोड़ा हास-परिहास,व्यंग्य 

धक्का-मुक्की मची साहित्यिक संगम पर
कवियों की बढ़ती अनहद भींड़ में
जबरदस्त होड़ लगी ऐसी कि इस
दमघोंटू अनियंत्रित भगदड़ में
स्वयं का खोया अस्तित्व ढूंढ ढूंढ
थककर हम न जाने कहाँ खो गए ।

प्रयास के सार्वजनिक सपाट मंच पर
निरन्तर ले दनादन कविताओं की
हो रही मूसलाधार दिन-रात बिन थमे
ऐसी बेहिसाब छपा-छप बरसात कि
इस धुंवाधार अल्हड़ बरसात में
भींगकर हम न जाने कहाँ खो गए ।

शब्द भंडारण के हर्फ़ चूक गए मेरे लिए
शब्दों के नक्काशीदार आभूषणों से 
अड़िच कर नाक तक उदर भर रहीं 
धकाधक गणमान्यों की रचनायें अब,
शब्दों का इस कदर नोंच-चोथ देख
रिक्त कोष में हम न जाने कहाँ खो गए ।

सूखी अन्तराभिव्यक्ति शब्दाभाव में
लेखनी अरूचि दर्शाती इस ठौर से
सबकी भाव नदी में जैसे बाढ़ आ गई
छक के ठूंस-ठूंस भरे शब्दों के कौर से
लगा कवियों का विस्तृत महाकुंभ मेला
भटक घाट पर हम न जाने कहाँ खो गए ।

सोचती किस विधा का रचूं काव्य मैं
अब तो कड़ियां भी मुझसे बेगानी हुईं
शब्दों का खजाना कंजूस मेरे लिए
सहर्ष न्योछावर हो सब पर नूरानी हुईं
इस अपाच्य मर्ज का उपचार ढूंढते
प्रिय सुधिजन हम न जाने कहाँ खो गए ।

पंक्तियां भी ठूंठ हुईं मुझसे रूठकर  
मेरी कल्पनाओं में फिर जाने कब
आयेंगी बहाररें फूटेंगी नई कोंपलें
मन प्रांगण होगा सुवासित जाने कब
हर्फ़ों की बसंती लहकती महक से
मधु सपनों में हम न जाने कहाँ खो गए ।

मन के विरान उद्यान में शब्दों की
जाने कब लगेगी झड़ी बौर सी
कूंककर सुप्त मेरी कलम कोकिला
जाने कब फूंकेगी नई उर्जा सौर सी
आस की क्षीण सी थरथराती रोशनी में
तल्लीन हो हम न जाने कहाँ खो गए ।

रचनाओं के परिमार्जन में ही मैं
वक्त जाया करूं या प्रयास के सीने पर
बाट लगा दूं बेरोकटोक रचनाओं की
उघाड़ शब्दों को या पछाड़ अर्थों को
कील ठोंक दूं अटपट कविताओं की
उहापोह में हम न जाने कहाँ खो गए ।

भावार्थ ढूंढूं या रहूं भाव शून्य
आलोचना करूं या समालोचना
आंकलन करूं या विश्लेषण करूं
कि तारीफों के पुल बांधते ठगते रहना
या खोलूं मिथक के सब्र की बेड़ियां
असमंजस में हम न जाने कहाँ खो गए ।

रस,छन्द,अलंकार से विभूषित करूं
या उजाड़ दूं सिरे से इसके मूल गंध ही
कहीं झर ना जाए लता कविता की
प्रयोगवाद से न मर जायें गीत,बन्द ही
कुश्ती लड़ूं या बदलूं अंदाज शौक का 
इस जमघट में हम न जाने कहाँ खो गए ।
                  शैल सिंह

गुरुवार, 1 अगस्त 2019

" बिठा सपनों के हिंडोले पर चले जाते हो "

 बिठा सपनों के हिंडोले पर चले जाते हो

आँखें कहती हों कुछ देखते जिस तरह
छोड़ कर अबूझ कौतुहल चले जाते हो
जिज्ञासाओं के चमन खिला प्रेम पंखुरी
दीप मन के बसेरे में जला चले जाते हो ।

हृदय में भी उतर जरा झाँक जाया करो
लगाकर हसरतों का मेला चले जाते हो
कल्पनायें नासमझ उड़तीं बिन पंखों के
रिझा रास अलौकिक रचा चले जाते हो ।

क्यों कनखियों से देखते जताते बेरूखी
भरम का पिला गरल नशा चले जाते हो
क्यों भोर की किरण सांध्य बन चाँद का
छीन करार कुछ कहे बिना चले जाते हो ।

रूप निरखते सदा मन की टोह लेते नहीं
बिठा सपनों के हिंडोले पर चले जाते हो
मदोन्मत्त हो किये कुछ लिहाज भी करो
निर्दोष हसरतें संजीदा कर चले जाते हो ।

अल्फाज़ बोलो कुछ ताले खोल अधर के
झिझक की गली में सैर कर चले जाते हो
उल्लास के बहाव में बहा कश्ती मौन की
स्थिर मौजों को छेड़ दगा दे चले जाते हो ।

छोड़ो बुज़दिली मधुर शब्द घोलो कर्ण में
भाव मन के भाँप आघात दे चले जाते हो
ग़र अनमोल अवसर गंवा दिये संकोचों में 
बिखर जायेगा ये ताना-बाना चले जाते हो ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                      शैल सिंह