सोमवार, 20 दिसंबर 2021

एक दीवाना ऐसा भी

              '' एक दीवाना ऐसा भी ''

तुझ पर नज़्म लिखूं या शायरी 
कि  ग़ज़ल  लिखूं  या  कविता 
जीवन तुझपे सहर्ष ही वारूँ,या
बरसा दूं उर की तरंगित सरिता ,

साज़ भी तुम और तुम्हीं तराना  
कन्ठ का सुर,लय,ताल भी तुम   
विश्वास करो मेरे नग़मों का भी 
ख़ूब सुन्दर सी आवाज भी तुम ।

तकदीर बनाने  निकला  घर से
हाय चंद्रमुखी का हुआ शिकार
झट नीलाम  भावना  कर  बैठा
भरमा गई मन चितवन की धार,

तूं अनमोल कृति  किस सर्जक 
की, उसको सलाम मैं करता हूँ
सच्च अद्भुत ख़ुदा की नेमत हो
नामुरादों  की नज़र से डरता हूँ ।

तुम बेमिसाल कली गुलशन की
मैं मदमस्त भंवरा अलबेला तेरा
सारी दुनिया निसार दूँ कदमों में
कहो तो शाद से बहार बन  तेरा ,

लगे जन्नत  शबाब तेरा जानम
लगे तूं ताजी गुलाब बगिया की
रंभा,उर्वसी जैसी तुम लाज़वाब
आठों पहर माहताब दुनिया की ।

तेरी झील सी उन्मत्त आँखों में
डूबूँ उतराऊँ जिया मचलता है
मैं ठहरा  इक बदनाम अनाड़ी
गली तेरी जाने से जी डरता है ,

शाहकार आँखों का दोष है या
तूं है कोई देवलोक की अप्सरा
इन उपमानों के आगे यही लगे
दुनिया  की थिसारस  भी जरा ।

सारी उम्र गंवा दी मैंने जुनून में
बस इक तेरी याद सजा देने में
कैसे काटा सफ़र तनहा-तनहा
देखा हुआ  ख़्वाब भुला देने में ,

आँखों  के रस्ते  दिल में उत्तर
क्यों  रूह  में हल-चल भर दी
अपनी बेबाक़ अदा से घायल
जां-ज़िगर को  पागल कर दी ।

तेरे घुँघराले ज़ुल्फ़ों के पेंचों में
मैं ऐसा उलझा उबर नहीं पाया
तेरा कोई और है क्या परवाना 
जो मैं दीवाना नज़र नहीं आया ,

जिन केशों की घनेरी छाँव तले
मेरा दिन रात का सुखद बसेरा
निगल ना ले  फ़ैशन की आँधी
कहीं उजड़ ना जाये ये घर मेरा ।

पूरब-पच्छिम दिन-रात भी मैं
अराध्य देवों को भी भूल रहा
हर वक़्त समायी ज़ेहन में तुम
लगे तेरे ज़िहन में मैं झूल रहा ,

निग़ाहों से शरारत तुमने किया
हाय बर्बाद हुआ लोग कहते हैं
बिखरी ज़ुल्फ़ें फिरूँ बावरा सा
क्या इसे ही मोहब्बत कहते हैं ।

तूं तो रूप की ऐसी मधुशाला
छलकाई आँखों से जो पैमाना
होश गंवा बैठा ऐसा ख़ुमारी में
सेहरा में है घायल पड़ा दीवाना ,

अल्हड़ सी ग्रीवा झुकाती जब
तुझे हिक भरकर नज़र निहारे
कभी मेरी ओर पलट देखो जो
दिख जाते दिन में भी तारे-तारे  ।

तुम्हारी क़ातिल अदायें शातिर
मैं था बेक़सूर  यूँ ही मारा गया
पीता न कभी था शिकवा यही
निग़ाहों से क़सम पिलाया गया ,

पूरन के चाँद  सी दिखतीं तुम
दिल में ज्वार  ऊफन आता है
जब-जब चकोर बन निरखूँ मैं
चाँद ये बदली में छुप जाता है ।

मेरी रात  सितारों  से भर  दो
फिर कभी बात  बने कि नहीं
जरा गौर से देख लूं ठहरो तो
फिर मुलाक़ात ये हो कि नहीं ,

मंजिल दोनों की अलग-थलग
राहें भी  सफ़र की ज़ुदा-ज़ुदा
फिर मिलें कभी या नहीं मिलें
ये तो जाने बस तेरा मेरा ख़ुदा ।

अहसासों को  आम किया ना
निग़ाहों की जुबां  से पढ़ लेतीं
मैखा़ने सा सुरूर था आँखों में  
डर था थप्पड़  तुम जड़  देतीं ,

क्यूँ हक़ीक़त है छुपाती पर्दे में
क्या 'शै' है कि भूल नहीं पाता
साक़ी बन मस्ती सांसों में भरी 
अधरों पे वंशी गीत वही गाता ।

जाना जब था फिर आई क्यों
बहाना कोई  बना दिया होता
यूँ बज़्म से उठ झट चली गईं 
तराना कोई  सुना दिया होता ,

चल दी ऐसे गिराकर नज़रों से
अपमान भूला नहीं पाता हूँ मैं
रहती हर पल याद की ज़द में 
पर तुझसा नूर नहीं पाता हूँ मैं ।

चिलमन से उठाकर परदा तुम
बेहिसाब संगीन शरारत की हो
पत्थर की मोम सी प्रतिमा बन
चाहत के साथ तिज़ारत की हो,

आहें भरूं या पीऊँ मय छककर
कि तूं याद नहीं आओ हरजाई
बेपनाह मोहब्बत है ज़िन्दगी से
क्यों बे-अमल कर गई रुसवाई ।

वीरां-वीरां दिल की हवेली मेरी  
ख़ुद का मुद्दत से एहसास नहीं
ख़ुद को भूला हूँ तेरे ख़्यालों में
मजबूर हूँ पर अब बेआस नहीं

नग़मों में पिरो-पिरो गा लेता हूँ
कैसे ज़खम भला मैं दिखलाता
भर लेतीं जो  कभी बाहुपाश में
मुझमें सारा ख़लक समा जाता ।

दिल के तख़्त तुम्हें बिठाता मैं
जिस्म यह काश तुम्हारा होता
गुनगुनाता बेच ख़ुशी हाथों तेरे
सुकून से हर रात गुजारा होता ,

इस ईश्क़ में पागल मैं ही नहीं
घायल तूं भी  मुझसे कम नहीं
यहाँ दर्दे ज़िगर  बेहद तो क्या
तड़प तेरी भी मुझसे कम नहीं ।

नित्य अश्क़ों का ज़ाम हूँ पीता
लब सी दिल जार-जार है रोता
सनम हरजाई हँसी उड़ातीं तब
हाल-ए-दिल जो लतीफ़ा होता ,

दुनिया जी बहलाती थी मुझसे 
मुझपे ही सोजे-क़हर ग़म बरपा
अनजाने में हिमाक़त  कर बैठा
देखो दिल चाक्-चाक् है दरका ।

महफ़िल का तेरे ऐ जाने-ज़िगर
कितना अद्भूत दस्तूर निराला है
कि इक बूँद को तरसे मतवाला
यहाँ मय का छलकता प्याला है ,

मैं तेरी ही खातिर देवदास बना
तूं भी पारो मेरी  ग़र बन जातीं
तो दुनिया की बेमानी चीजें भी
कसम तुम्हारी सोना बन जातीं ।

मैंने तुझे रिझाने की ख़ातिर ही 
कैसा ख़ुद पर अत्याचार किया
मन मुरादों की अधीर बेचैनी में
ना जाने कैसा व्यभिचार किया ,

तूं ही तूं आए  हर तरफ नज़र
जिस तरफ निराश नज़र जाए
मनमौजी मूरख नज़र ठगी सी
इश्तिहारों पे भी जा ठहर जाए ।

हसरतों की  होली जला प्रिये  
भस्मों को अंगों  में रहा लपेटे
जैसे सर्प नेह से संदल दरख़्त  
जकड़कर अंकों में रहा समेटे , 

इस मृगतृष्णा से पहले सनम 
मैं था कितना  बिन्दास कभी
बड़ा मासूम सा था मुखमंडल
आ कहता आईना पास अभी ।

मेरी अहदे-वफ़ा लम्हातें हसीं
क्या थीं तुझको एहसास नहीं
तेरे दर से गुजरा बस राहे जुनूँ
अंजाम होगा क्या परवाह नहीं ,

कितनी तहरीरें वफ़ा की मैंने
लिख कर तामीर बना डालीं
देकर दिल के मुंडेरों पे सदा
हर हर्फ़ें ख़ामोश सुना डालीं ।

जलवा बिखेरतीं शबे-फ़िराक़
क़ातिलाना शरारतें कर जातीं
डूबो-डूबो सपनों  के सागर में
तन्हा रातों में सपने भर जातीं  ,

बेदस्तक़ आती मेरे ख़यालों में
दिल मेरा वाग्-वाग् हो जाता है
प्रतिदिन महका जाती हो सांसें
अरमां मचल-मचल मुस्काता है।

तेरी स्मृतियों के दीप जलाकर 
शबे-हिज्रां उन्माद  में बहता हूँ
साथ ऐश्वर्य माज़ी का इतना है
रेज़े ज़ख्मों के सहेजा करता हूँ  ,

दु:खते लम्हात भी जाते गुजर 
यादों का साथ कारवाँ होता है
उजड़े चमन में कहाँ अकेला मैं
संग ग़म-गुसार बाग़वां होता है ।

लब पर नाम तेरा ऐ संगेमरमर 
पुतली बन आँखों में  रहती हो
नहीं रंज बिछड़ने का बस यार 
तबियत से मौसमे-ग़म देती हो ,

तक़दीर भले किसी और की तूं
हो किसी और के मठ की मूरत
शुक्र है कि मुझ आशिक के भी
दिल में समायी रहती तेरी सूरत ।

इस दर्द में भी मिठास है इतना
रख अंबार ज़ख्मों का शानों पे
उदास ज़िन्दगी ठिठक जाती है 
सुन तेरे से अनुरूप सा नामों पे  ,

हो गया दीवाना या पागल मैं
कोई हाल तुझे मेरा बतला दे
किस शहर में है तूं आजकल 
कोई जरा पता तेरा बतला दे ।

सपना बन इतराती आँखों में
पलकों की छत पर आओ ना
क्या सबब है मेरी तबाही का
जरा दुनिया को बतलाओ ना ,

नित सपनों के समन्दर में बहता 
बेलगाम मौज़ों का मजा हूँ लेता 
तह भीतर छुपकर बैठा रहता हूँ
कश्ती तट पे निडर सजा हूँ देता ।

घर-घर छाई  जग-मग  दीवाली
घर में ही दीप जलाना भूल गया
क्यूँ कि दिल का चराग़ है रौशन
ख़ुद को भी तो हूँ जैसे भूल गया ,

फिरता हूँ दीवानों सा गली-गली
जहाँ कहता मुझे लफ़ंगा लोफ़र
नख-शिख तक डूबा तेरे कर्ज़े में 
दिये तूने जितने हयात में ठोकर ।

मैं तो ठहरा सच्चा प्रेम पुजारी
होंठों पे मुहर लगा धुनी रमाता
मन मन्दिर की मूरत  बना तुझे
देख दहर को अखर क्यूँ जाता ,

सूख गई होगी सनम छुहारे सा 
प्रियतम की  लरज़ती  बांहों में
मेरे ज़ज्बों का  शज़र हरा-भरा 
सींच रखा अश्क़ों की फ़ाहों में ।

दर्द पिघल शबनम की बूँद बना
भींगे काठ सा सुलगूँ तिल-तिल
फिरता रहता बस जंगल-जंगल
सर्द रातें संग यादों की महफ़िल ,

किस जगह कहाँ कब तुझे नहीं
तलाशती रहतीं हैं बेज़ार निग़ाहें
क्या ख़बर इन्हें कि तुम्हारी अब  
बदल सी गईं हैं मगरूर  निग़ाहें ।

कितना रूतबा है मुझ दीवाने का
किसी परिचय का मोहताज नहीं
अमीरी का सनद कृपा तुम्हारी है
लज्ज़ते आलम बस है नाज़ यही ,

यदि महाप्रलय आया डर लगता
और लील ना जाए सारी दुनिया
लेश परवाह ना ख़ुद की मुझको
कहीं लील ना  जाए मेरी दुनिया ।

मेरे दिल में दफ़न तुम्हारी तस्वीरें
क़रीने से सजा रखा हूँ ख़यालों में
हर पल महके एहसास की ख़ुश्बू
रहता शाद अत्यंत इन जंजालों में ,

मिल्क़ियत तुम्हीं हो दिल की मेरे
रचना की कालजयी कविता मेरी
इस विरासत की तुम हो साम्राज्ञी
हो समग्र ज़िंदगी की सम्पदा मेरी । 

                               शैल सिंह
































गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

" ओ पत्थर के दिल वालों,अब देखना मेरी मौज-ए-रवानी "

'' ओ पत्थर के दिल वालों,अब देखना मौज-ए-रवानी मेरी ''

वीरां-वीरां हुआ गुलशन,फूलों ने भी महकना छोड़ दिया
जब मन से नहीं अनुबन्ध,रूह ने भी भटकना छोड़ दिया
औरों ने ठिकाना बना लिया,जब सुना सनम की बस्ती में
घटायें तो घिरीं सावन सी, आँखों ने बरसना छोड़  दिया ।

वक़्त के हाथों जख़्मों पर,ख़ुद वक़्त ने मरहम लगा लिया
इक वक़्त था जलते थे,शमां यादों का जलाना छोड़ दिया
क्यों ज़ख्म जहाँ को दिखलाऊँ,कर दी दर्द दफ़न सीने में
देख नासूरों को  तिल-तिल,घुट-घुट मर जाना छोड़ दिया ।

मैं नहीं वो परवाना फतिंगा,जल ख़ाक़ में ज़िस्म मिला दूँ
उड़-उड़कर बैठना दीयों पर,जुनूँ में मंडराना छोड़ दिया
दे दे सदाएं बस्ती-बस्ती,मेरी वफ़ा का लाश लिए फिरना
ये दरों-दीवारें दहलीजें,खुला दरीचा रखवाना छोड़ दिया ।

जिस शज़र के हर शाखाओं पर,आजाद परिंदा रहता था 
उस शाख़ की कोमल कलियों ने,भी इठलाना छोड़ दिया
चिताएं सजा कर चाहतों की,दरिया में राख बहा डाली मैं
क्यूँ देखूँ अदा काँटों की,दिल फूलों से लगाना छोड़ दिया ।

गुंथे जिनके जिक्रों के मनके,मैंने बंद,शेर,ग़ज़ल रुबाई में
उनमें डूब के अब गाना,अफ़सानों का तराना छोड़ दिया
कभी दिल शाद किये थे,काढ़ कसीदे जिनकी तारीफ़ों से
जो क़त्ल किया दिल का,उसे  क़ातिल बताना छोड़ दिया ।

सजा जिन ख़्यालों के गुल से बज़्म,अष्ट पहर शिराओं में
उसकी धृष्ट हक़ीक़त देख,दिल को धड़काना छोड़ दिया
मुझ पर तो तजरबे बहुत किए वो,मैंने भी तजरबा सीखा
कोई इल्ज़ाम ना उसपर आये,इल्ज़ाम लगाना छोड़ दिया ।

कैसे कहूँ उसे शिद्दत से कभी,हर लम्स शदीद से चाही मैं
उस सैय्याद की बुलबुल ने ही,वफ़ा आजमाना छोड़ दिया
मेरा ज़िगर नहीं संगमरमर का,दिल पे चोट ख़ुशी से खाए
कोई रुपसी देख ज़ेहन उसके,नज़रों में बसाना छोड़ दिया ।

गिर-गिर के संभलना आ तो गया,पर घायल होने के बाद
हुस्न ज़ाम नहीं मैख़ाने का,सागर सा छलकाना छोड़ दिया
ख़ता दोहराने की ताब नहीं,जाने कैसे ख़ता इक बार हुयी
फिर दिल का जनाज़ा निकले,देना वो नजराना छोड़ दिया ।

कभी काज़ल के करिश्मों सा,चमका था चाँद सा नज़रों में  
तोड़ा ऐसा ऐतबार के चाके-दिल,नज़रें मिलाना छोड़ दिया
कभी जिन केशों की वेणी में,फूल हजारों वफ़ा का टाँके थे
उसे देख अदा से लहराना,लटें रुख़ पर गिराना छोड़ दिया ।

क्यों ख़ुद को रखूँ भूलावे में,ग़म ढाल कर ग़ज़लों,गीतों में
दिल के नगर से नाम मिटा,राहत का ठिकाना खोज लिया
कभी ज़िक्र ज़ुबां ना लाऊँगी,मैंने कसम से सौगन्ध खाई है
हर चिन्ह खुरचके फ़ेंक दिया,जीने का ख़ज़ाना खोज लिया ।

अरे पत्थर के दिल वालों,अब देखना मौज-ए-रवानी मेरी
बहती हुई दरिया ख़ुद मैं,ख़ुद ही राह बनाना सीख लिया
कहीं इस भीड़ का हिस्सा बन,मैं भींड़ में ही खो जाऊँ ना
मैंने ख़ुद ही शहर में ख़ुद की पहचान बनाना सीख लिया ।

मनके--माला ,  शदीद--गहराई ,  
चाके-दिल--घायल हृदय,

                                         सर्वाधिकार सुरक्षित       
                                                       शैल सिंह