'' एक दीवाना ऐसा भी ''
ख़ूब सुन्दर सी आवाज भी तुम ।
तकदीर बनाने निकला घर से
हाय चंद्रमुखी का हुआ शिकार
झट नीलाम भावना कर बैठा
भरमा गई मन चितवन की धार,
सच्च अद्भुत ख़ुदा की नेमत हो
नामुरादों की नज़र से डरता हूँ ।
तुम बेमिसाल कली गुलशन की
मैं मदमस्त भंवरा अलबेला तेरा
कहो तो शाद से बहार बन तेरा ,
लगे जन्नत शबाब तेरा जानम
लगे तूं ताजी गुलाब बगिया की
आठों पहर माहताब दुनिया की ।
तेरी झील सी उन्मत्त आँखों में
डूबूँ उतराऊँ जिया मचलता है
मैं ठहरा इक बदनाम अनाड़ी
शाहकार आँखों का दोष है या
तूं है कोई देवलोक की अप्सरा
इन उपमानों के आगे यही लगे
दुनिया की थिसारस भी जरा ।
सारी उम्र गंवा दी मैंने जुनून में
आँखों के रस्ते दिल में उत्तर
क्यों रूह में हल-चल भर दी
अपनी बेबाक़ अदा से घायल
जां-ज़िगर को पागल कर दी ।
तेरे घुँघराले ज़ुल्फ़ों के पेंचों में
मैं ऐसा उलझा उबर नहीं पाया
तेरा कोई और है क्या परवाना
जिन केशों की घनेरी छाँव तले
मेरा दिन रात का सुखद बसेरा
निगल ना ले फ़ैशन की आँधी
कहीं उजड़ ना जाये ये घर मेरा ।
पूरब-पच्छिम दिन-रात भी मैं
निग़ाहों से शरारत तुमने किया
बिखरी ज़ुल्फ़ें फिरूँ बावरा सा
तूं तो रूप की ऐसी मधुशाला
अल्हड़ सी ग्रीवा झुकाती जब
तुझे हिक भरकर नज़र निहारे
कभी मेरी ओर पलट देखो जो
दिख जाते दिन में भी तारे-तारे ।
तुम्हारी क़ातिल अदायें शातिर
मैं था बेक़सूर यूँ ही मारा गया
पीता न कभी था शिकवा यही
निग़ाहों से क़सम पिलाया गया ,
पूरन के चाँद सी दिखतीं तुम
दिल में ज्वार ऊफन आता है
जब-जब चकोर बन निरखूँ मैं
चाँद ये बदली में छुप जाता है ।
मेरी रात सितारों से भर दो
फिर कभी बात बने कि नहीं
जरा गौर से देख लूं ठहरो तो
फिर मुलाक़ात ये हो कि नहीं ,
मंजिल दोनों की अलग-थलग
राहें भी सफ़र की ज़ुदा-ज़ुदा
फिर मिलें कभी या नहीं मिलें
ये तो जाने बस तेरा मेरा ख़ुदा ।
अहसासों को आम किया ना
निग़ाहों की जुबां से पढ़ लेतीं
मैखा़ने सा सुरूर था आँखों में
साक़ी बन मस्ती सांसों में भरी
जाना जब था फिर आई क्यों
यूँ बज़्म से उठ झट चली गईं
तराना कोई सुना दिया होता ,
अपमान भूला नहीं पाता हूँ मैं
रहती हर पल याद की ज़द में
पर तुझसा नूर नहीं पाता हूँ मैं ।
चिलमन से उठाकर परदा तुम
पत्थर की मोम सी प्रतिमा बन
आहें भरूं या पीऊँ मय छककर
बेपनाह मोहब्बत है ज़िन्दगी से
वीरां-वीरां दिल की हवेली मेरी
ख़ुद को भूला हूँ तेरे ख़्यालों में
मजबूर हूँ पर अब बेआस नहीं
नग़मों में पिरो-पिरो गा लेता हूँ
कैसे ज़खम भला मैं दिखलाता
दिल के तख़्त तुम्हें बिठाता मैं
जिस्म यह काश तुम्हारा होता
गुनगुनाता बेच ख़ुशी हाथों तेरे
सुकून से हर रात गुजारा होता ,
इस ईश्क़ में पागल मैं ही नहीं
घायल तूं भी मुझसे कम नहीं
यहाँ दर्दे ज़िगर बेहद तो क्या
नित्य अश्क़ों का ज़ाम हूँ पीता
लब सी दिल जार-जार है रोता
सनम हरजाई हँसी उड़ातीं तब
दुनिया जी बहलाती थी मुझसे
मुझपे ही सोजे-क़हर ग़म बरपा
अनजाने में हिमाक़त कर बैठा
देखो दिल चाक्-चाक् है दरका ।
महफ़िल का तेरे ऐ जाने-ज़िगर
कितना अद्भूत दस्तूर निराला है
कि इक बूँद को तरसे मतवाला
यहाँ मय का छलकता प्याला है ,
मैं तेरी ही खातिर देवदास बना
तूं भी पारो मेरी ग़र बन जातीं
कसम तुम्हारी सोना बन जातीं ।
मैंने तुझे रिझाने की ख़ातिर ही
कैसा ख़ुद पर अत्याचार किया
मन मुरादों की अधीर बेचैनी में
तूं ही तूं आए हर तरफ नज़र
जिस तरफ निराश नज़र जाए
मनमौजी मूरख नज़र ठगी सी
इश्तिहारों पे भी जा ठहर जाए ।
जैसे सर्प नेह से संदल दरख़्त
इस मृगतृष्णा से पहले सनम
मेरी अहदे-वफ़ा लम्हातें हसीं
क्या थीं तुझको एहसास नहीं
तेरे दर से गुजरा बस राहे जुनूँ
कितनी तहरीरें वफ़ा की मैंने
लिख कर तामीर बना डालीं
देकर दिल के मुंडेरों पे सदा
जलवा बिखेरतीं शबे-फ़िराक़
क़ातिलाना शरारतें कर जातीं
डूबो-डूबो सपनों के सागर में
तन्हा रातों में सपने भर जातीं ,
बेदस्तक़ आती मेरे ख़यालों में
प्रतिदिन महका जाती हो सांसें
अरमां मचल-मचल मुस्काता है।
तेरी स्मृतियों के दीप जलाकर
शबे-हिज्रां उन्माद में बहता हूँ
साथ ऐश्वर्य माज़ी का इतना है
रेज़े ज़ख्मों के सहेजा करता हूँ ,
यादों का साथ कारवाँ होता है
उजड़े चमन में कहाँ अकेला मैं
संग ग़म-गुसार बाग़वां होता है ।
पुतली बन आँखों में रहती हो
तक़दीर भले किसी और की तूं
हो किसी और के मठ की मूरत
शुक्र है कि मुझ आशिक के भी
इस दर्द में भी मिठास है इतना
रख अंबार ज़ख्मों का शानों पे
उदास ज़िन्दगी ठिठक जाती है
हो गया दीवाना या पागल मैं
सपना बन इतराती आँखों में
क्या सबब है मेरी तबाही का
जरा दुनिया को बतलाओ ना ,
नित सपनों के समन्दर में बहता
बेलगाम मौज़ों का मजा हूँ लेता
तह भीतर छुपकर बैठा रहता हूँ
कश्ती तट पे निडर सजा हूँ देता ।
घर-घर छाई जग-मग दीवाली
घर में ही दीप जलाना भूल गया
क्यूँ कि दिल का चराग़ है रौशन
ख़ुद को भी तो हूँ जैसे भूल गया ,
फिरता हूँ दीवानों सा गली-गली
जहाँ कहता मुझे लफ़ंगा लोफ़र
नख-शिख तक डूबा तेरे कर्ज़े में
मैं तो ठहरा सच्चा प्रेम पुजारी
सूख गई होगी सनम छुहारे सा
मेरे ज़ज्बों का शज़र हरा-भरा
दर्द पिघल शबनम की बूँद बना
भींगे काठ सा सुलगूँ तिल-तिल
फिरता रहता बस जंगल-जंगल
सर्द रातें संग यादों की महफ़िल ,
किस जगह कहाँ कब तुझे नहीं
तलाशती रहतीं हैं बेज़ार निग़ाहें
क्या ख़बर इन्हें कि तुम्हारी अब
कितना रूतबा है मुझ दीवाने का
किसी परिचय का मोहताज नहीं
अमीरी का सनद कृपा तुम्हारी है
यदि महाप्रलय आया डर लगता
और लील ना जाए सारी दुनिया
लेश परवाह ना ख़ुद की मुझको
मेरे दिल में दफ़न तुम्हारी तस्वीरें
रहता शाद अत्यंत इन जंजालों में ,
मिल्क़ियत तुम्हीं हो दिल की मेरे
रचना की कालजयी कविता मेरी
शैल सिंह