मंगलवार, 13 सितंबर 2016

'' शेर '' दिल के लफ़्ज शेरों में ढल गए

            दिल के लफ़्ज़ शेरों में ढल गए


                                 ( 1 )

मैंने तो खतों के चिंदे उड़ा दिए के किसी के हाथ ना लग जाएं
पर एक-एक हर्फ़ दिल के दराज़ में उन्होंने रखा है सहेज कर ,

अच्छा हुआ जो सपने चुरा लिए उसने वरना टूटकर बिखरते    
ख़ुशी देके हूँ फ़ुर्सत में वरना गुंचे ख़्वाब के सूखकर सिसकते ,

बात हमारी हमारे नहीं समझे,दिल के लफ़्ज शेरों में ढल गए
कमाल जो ख़त ना कर सके ग़ज़ल सरे महफ़िल में कह गए ,

कोई ऐसा दिन नहीं कि घटा ना बरसी अश्क़ में नहाये न रोज
हर शक़्ल में बिजली कड़की मासूम दिल को समझाए हैं रोज

मुद्दतों से उधर देखा नहीं आज देखा तो ठूँठ सा खड़ा है शाख़ 
कभी परिंदों का हरा-भरा संसार था इसपे कैसे खड़ा है उदास ।

                              ( 2 )

पास उन्हें देखकर ज्यों घटा छ गई
आँखों के रस्ते बरसात होने लगी धीरे-धीरे,

लंबे अरसों के बाद ये मुलाकात थी
लब ख़ामोश मगर बात होने लगी धीरे-धीरे ,

तसल्ली से भी जब जी ना भरा
अहसासे दिल अंगड़ाई लेने लगी धीरे-धीरे ,

पल में हरे हो गए लम्हे मुरझाये हुए
जज़्बात खुलकर मुखर होने लगी धीरे-धीरे। 

   

                                          शैल सिंह

'' ग़ज़ल '' हो गई देर झिझक की गली में अगर

 हो गई देर झिझक की गली में अगर


लब से बोलो न बोलो तुम कुछ मगर
हकीक़त वयां करतीं अंतर्मन की निग़ाहें तुम्हारी,

मौन की ये समाधि सच ना बोले भले
खोल देतीं राजे-उल्फ़त दिल की किताबें तुम्हारी,

लफ़्ज़ों की शक्ल में खिल जाते कँवल
क़शमक़श में खनकती मगर मुस्कुराहटें तुम्हारी,

धड़कते हुए दिल के अहसासात को
गुनगुनाती बेसाख़्ता दीवानगी सुन ग़ज़लें तुम्हारी,

बेतकल्लुफ़ जुबां पे लहरों को आने दो
ज़माने को दिखाओ हसीं नशेमन तमन्नाएँ तुम्हारी,

अनजान हम भी नहीं पता आशिकी का
क्यूँ रोकतीं इज़हार से संकोचों की सरहदें तुम्हारी,

कुछ तो बोलो भारी लगे लम्हा-लम्हा
क्यों पहेलियों में उलझा रखीं तुझे वर्जनाएं तुम्हारी,

चराग़ दिल का हम भी जलाये हैं बैठे
आसान होंगी भला कैसे आख़िर समस्याएं तुम्हारी,

हो गई देर झिझक की गली में अगर
कठपुतली बन नाचेंगी दिलकशीं आरजुवें तुम्हारी ।

                                                  शैल सिंह


शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

ग़ज़ल गुनहगार हूँ मगर बेकसूर भी हूँ

गुनहगार हूँ मगर बेकसूर भी हूँ


ज़माने की निग़ाहों का तीर सह सकी ना
मजबूर इस कदर हुई कर बैठी बेवफ़ाई

कभी आह भरती हूँ  कभी रोती बहुत हूँ
दर्द रात भर पिघलता  जाने कैसी बुत हूँ
अश्क़ गम के खातों में कसकती तन्हाई
मजबूर इस कदर हुई कर बैठी बेवफ़ाई

कभी फूल बन के तुम आते हो ख़्वाबों में
कभी पलकों पर आ  बह जाते सैलाबों में
क्यूँ गुजरे ज़माने की महका जाते पुरवाई
मजबूर इस कदर हुई  कर बैठी बेवफ़ाई ,

अपनी ज़िन्दगी अपनी किस्मत ना बस में
भला कैसे निभाते हम वफ़ादारी की रस्में
जिधर फेरती निग़ाह दिखती तेरी परछाई
मजबूर इस कदर  हुई कर बैठी बेवफ़ाई ,

तिल-तिल कर मरती हूँ दिल की तड़प से
यह शमां जलती देखो ज़िस्म की दहक से
क़समें वादों का जनाज़ा क्या गाये रूबाई
मजबूर इस कदर  हुई कर बैठी बेवफ़ाई

बेग़ैरत मोहब्बत ना मेरे हमदम समझना
ख़ुदा की कसम मुझको बेवफ़ा न कहना
बेपनाह मोहब्बत  की तुम्हें दे रही  दुहाई
मजबूर इस कदर  हुई कर बैठी बेवफ़ाई ,

तोहमत की बिजली न बेचारगी पे गिराना
जब भी दूँ सदा सुन फ़रिश्ता बनके आना
टूटा दिल का आबगीना फिर भरने रौनाई
मजबूर इस कदर  हुई कर  बैठी बेवफ़ाई

आबगीना --शीशा

                           शैल सिंह 

रविवार, 3 जुलाई 2016

एक दीवाना ऐसा भी

एक दीवाना ऐसा भी 

हटा दो लाज का पहरा 
   सबर आँखों का जाता है 
      मेरी बेचैन चाहत को 
         अदा नायाब भाता है ,

काली घटा सी जुल्फ़ें 
   क्या बिजली गिराती हो 
       मैं मदहोश हुआ जाता 
          ग़जब चिलमन गिराती हो ,

चुराकर चैन सोतीं तुम 
    सपन की मीठी बाँहों में 
       पल भर कटी ना रातें 
           मगन बोझल निग़ाहों में ,

अगर तुम ला नहीं सकतीं 
    जुबां पर दिल की वो बातें 
         निगाहों से वयां कर देतीं 
            जुबां और दिल की वो बातें ,

तेरे ख़न्जर नयन नशीले 
   कहीं जान ना मेरी ले लें 
       सुर्ख लबालब होंठ रसीले 
           मोहब्बत सरेआम ना पीलें ,

आँखें मदभरी मधुशाला 
   तिल क़ातिल गाल गुलाबी हैं 
       अकारथ ही हुआ मतवाला 
             रंग-ढंग भी चाल नवाबी है ,

पिलाकर मय निगाहों का 
   ना नजरें यूँ झुकाकर चल 
        दबाकर दिल की चाहत को 
            ना दिल को यूँ जलाकर चल ,

तुझे देखूं तो आता चैन 
    नहीं तो दिल को बेचैनी 
        क़यामत क्यूँ हो ढाती यूँ 
            बता दो ना वो मृगनयनी ,

रुसवाई का डर है गर 
    गर है ख़ौफ़ ज़माने का 
        तो बेख़ौफ़ ईनायत कर 
            कर परवाह दीवाने का ,

ख़ुदा की कसम ज़न्नत 
    तिरे क़दमों में बिछा दूंगा
         अगर तूं चाँद मांगे जानम 
             जमीं पर लाकर दिखा दूंगा ,

क़सीदा तुम ग़ज़ल की हो 
   सुर,लय ,ताल नग़मों की 
        इन्तेहा प्यार की गर चाहो 
            तो ले लो सात जन्मों की ,

कर दीदार जालिम खोल 
    झरोखा दिल के दरपन का 
        क्या हालात हैं रोज़ो-शब 
            दीवाने दिल की धड़कन का ,

कहते लोग परेशां मुझको 
    कहाँ एहसास खुद का मुझको 
       हाँ औरों से सुना है जानम 
            मेरे हालात मालूम तुझको ,

 गर तुम पास होते दिलवर 
     समां का लुत्फ़ लेते छककर 
         फ़िज़ां भींगी सुहाना मौसम 
            होता गर बाँहों में लेते भरकर ,

ख़त लिखना नहीं वाज़िब 
   दिलो-जां में हो तुम रहती 
      तुझे हर हर्फ़ मालूम ख़त के 
          नित सांसों में समायी रहती ,

गर पूछेगा सितमगर कोई 
    पगले तूं बर्बाद हुआ कैसे 
         तेरी नाजो-अदा ने मारा 
             कह दूंगा ख़ुदा क़सम से ,

                              शैल सिंह 



शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

बौना मन का आस्मां कर रहना पड़ा है

बौना मन का आस्मां कर रहना पड़ा है  


तेरे नाम  से  बस  पहचानी  गयी मैं
था क्या  नाम  मेरा  भूलाना  पड़ा है
किसी ने ना देखा क्या मेरा है मुझमें
क्यों बेनूर  है नगीना  बताना पड़ा है ,

सांसों पे पहरा है ज़ज्बातों पे कब्ज़ा
कला,कल्पना,जुबां पर ताला जड़ा है
शिक़स्त से पड़े है ख़वाबों के टुकड़े
फ़नकार ख़ल्क़ से अनजाना पड़ा है ,

मोमबत्ती के  मानिन्द जलती रही हूँ
घर में कर उजाला पिघलती रही  हूँ
बस अंतर्शिखाएं मेरी अंतरंग सहेली
लेखनी को हमसफ़र बनाना पड़ा है ,

ग़र चिंगारियों को सह दी होतीं हवाएं
मचातीं धमाल मूर्छित हाट में कलाएं
मेरा हाल जानता बस मेरा आईना है
तसल्ली कि संग शैल खजाना पड़ा है ,

किसी जौहरी की ग़र पारखी निग़ाहें
तराशकर निखारतीं ख़ाब की मीनारें
बेक़द्र नायाब हीरा चमकता जहाँ में
ये शहरे अज़नवी को बताना पड़ा है ,

चौखट की जंज़ीरों बँधी हुई आरज़ुवें
बिना ऊफ़ के सैलाब दबाना पड़ा है
मन का परिन्दा ना हो कहीं आवारा
जकड़ बेड़ियाँ इसे समझाना पड़ा है ,

ख़ामोशी से ज़िस्म जलाया दीया सा
तबस्सुम का परचम लुटाना पड़ा है
अरमानों को वनवास देकर हूँ जीती
बड़ी पेचीदा ज़िन्दगी निभाना पड़ा है ,

खिलना चाहती थी संग बहारों के भी
मगर संग मौसम का निभाना पड़ा है
जमीं ख़्वाबों की मेरी सूरज सी तपती
अश्क़,शब की पलकों छुपाना पड़ा है ,

ये दरिया समंदर में मिला चाहता था
तवज्ज़ो का वाज़िब सिला चाहता था
हसरतों की प्यास,रख शानों जनाज़ा
मायूसी के छत ज़ख़्म सुखाना पड़ा है ,

तमन्नाओं की टूटी ये किरिचें हैं देखो
ग़म के कतरों से पन्ने भिगाना पड़ा है
बेबसी का अभ्र  भी कितना अज़ब है 
घटाओं को चुपचाप बरसाना पड़ा है ,

कोने के दीवट सी टिमटिमाती दीया हूँ
आज़ारे-आरज़ू छिपा मुस्कराना पड़ा है
क़फ़स में आज़ादी का पाबन्द ये पखेरू
क़ैद मन का बुलबुल तड़फड़ाना पड़ा है ,

ज़िन्दगी की जागीर लूटी किस्तों-किस्तों
बेसुर,ताल,लय पे पांव थिरकाना पड़ा है
खेलें शब्दों की लहरों से आकुल व्यथाएं
दर्द,ग़ज़ल,गीत,शायरी में पिराना पड़ा है ,

उजालों से मांगें क्या अपाहिज तमन्ना
शाहकारों से किरदार ये बेगाना पड़ा है
कब महफ़िलों ने पूछा इस रोशनी को
ज़ीस्त हाशिए पे बेनाम बिताना पड़ा है ,

कर्तव्यों की बेदी की होम मैंने ज़िंदगानी
घुट-घुट कर गिरेबान में समाना पड़ा है
हमसफ़र ना मन्जिल ना कारवाँ है कोई
बौना मन का आस्मां कर रहना पड़ा है ,

किसी  ने न  देखा क्या  मेरा  है मुझमें
क्यों बेनूर  है नगीना  बताना  पड़ा  है ।

                                  शैल सिंह 

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

'' क्षणिकाएँ ''


          क्षणिकाएँ 

१--
इक वो लोग हैं कि परदेश जाकर सबको भूला देते हैं 
और उनके वालिद कहते फिरते बेटा मनिआर्डर भेजता है ,
२-
झूठे ही खोला झरोख़ा था शीतल हवा के लिए
देखा जो बाहर का मंज़र तो रूह कंपकंपाने लगी ,
३-
मुझे देख अकेले राह पर क्यों पूछते हैं सभी रस्ते
बता के हमसफर संग कैसे आजकल हैं तेरे रिश्ते ,
४-
हसरत है मेरे देश के बच्चे अंग्रेजी अच्छी जानें
पर डर है कहीं वो हिंदी के वर्ण ना भूल जाएँ ,
५-
आपके होने ना होने का कोई फ़र्क़ नहीं दिखता
अपने होने का कभी एहसास तो करा दिया होता ,
६-
रौशन है अँधेरा कमरे का 
ग़म तेरा तन्हाई साथ जो है 
आँसू की तलब आँखों को नहीं 
रंज जुदाई का ख़ास जो है
इक तोहफ़ा साथ उमर भर का
रिश्ता बेवफ़ाई का हाथ जो है ,
७-
हम सफ़र संग साथ निभाती चली गई 
काँटों की चुभन ज़ज्ब किये तलवों में 
कभी ऊफ़ तक भी लब पर लाई  नहीं
सूरत पे भाव ना लाई कभी शिकवों में  ,
८-
बहते ही जा रहे वक़्त और किस्मत के सैलाब में
सपनों की रेत पर बनाये हुए ख़ाहिशों के घरौंदे मेरे
रब जाने कब नसीब होगी बंजर के सूखे शज़र को बहार
धराशाई होते जा रहे आकाश तक उड़कर मन के परिन्दे मेरे ,

                                                             शैल सिंह