सोमवार, 10 दिसंबर 2018

उर का गीला गलीचा है अब तलक

उर का गीला गलीचा है अब तलक

बहार बनकर तुम आये चमन में मेरे
ले गये लूट दिल की विरासत मेरी
जिंदगी भर का दर्द देकर उपहार में
मुड़के देखा न कभी कैसी हालत मेरी ।

रूह में इस कदर तुम समाये हुए
भूल जाऊं तुम्हें इतना आसां नहीं
तुम परखते रहे अजनबी की तरह
धड़कनें अब तो इतनी भी नादां नहीं ।

तुम छुपाते रहे कुछ उजागर न हो
मैंने भी तो जतन कुछ किए कम नहीं
पर इक दूजे के अहसासों की खबर
से थे परिचित ये भी तो कुछ कम नहीं ।

था माना मिलन कुछ पलों का सही
चन्द लमहों में धार प्रीत की जो बही
उर का गीला गलीचा है अब तलक
जो नैनों ने नैनों से बातें दिल की कही ।

चाँद आकार लेता जब आकाश में
रजनी होती जब रौशन नहा चाँदनी में
बावरी यादें खोल स्मृतियों के द्वार
गुदगुदा जातीं बांधकर समां चाँदनी में ।

ये गहबर चाँदनी ये सुहानी सी रात
जिनकी यादों का झोंका बहा लाई है
वो तो कब का शहर छोड़कर जा चुके
निगोड़ी फिर क्यूं मुंडेरों पे गहनाई है ।

                                        शैल सिंह