सोमवार, 23 सितंबर 2019

गजल '' सिला मजबूरी का दे लिपट गर रो लेते ''

सिला मजबूरी का दे लिपट गर रो लेते


शब्द कम पड़ गये छितरे-छतनारे भी
हाले-दिल,दर्दे-ग़म सुनाते-सुनाते उन्हें
दरअसल उन्हें सुनने में हमदर्दी न थी
हमने भी गुज़ारिश की कोशिश न की ।

देखे अंदाज़ बेपरवाह सा उठने का था
मुअत्तर आँखें न देखा पलट इक दफ़ा 
यतीम से ढले क़ीमती अश्क़ आँखों के   
हमने भी  नुमाईश की  कोशिश न की

झांक अतराफ़ में लेते तो रूख़्सत होते
सिला मजबूरी का दे लिपट ग़र रो लेते
बदलते रूत जैसे देखा उनकी चाल थी
हमने भी सिफारिश की कोशिश न की ।

क्या-क्या नुस्खे आज़मा सजी उन लिए 
ना देखा कुछ कहा दफ़अतन चल दिए  
कुछ अना की  दीवारें मन्ज़िलें भी जुदा
हमने भी आज़माइश की कोशिश न की ।

अन्त समय में मिला आखिर तो दर्द ही
सोचा कसमें,वादे,तसव्वुर याद दिला दूं
बेमसरफ़ सफ़र रहा मुहब्बत बेअर्थ भी  
हमने भी रंच ख़ाहिश की कोशिश न की ।

छतनारे—-विस्तृत , मुअत्तर—भींगा हुआ, 
अतराफ़—अन्तर्मन ,  दफ़अतन—यकायक
 

      सर्वाधिकार सुरक्षित
                         शैल सिंह

रविवार, 8 सितंबर 2019

थोड़ा हास-परिहास,,व्यंग्य

थोड़ा हास-परिहास,व्यंग्य 

धक्का-मुक्की मची साहित्यिक संगम पर
कवियों की बढ़ती अनहद भींड़ में
जबरदस्त होड़ लगी ऐसी कि इस
दमघोंटू अनियंत्रित भगदड़ में
स्वयं का खोया अस्तित्व ढूंढ ढूंढ
थककर हम न जाने कहाँ खो गए ।

प्रयास के सार्वजनिक सपाट मंच पर
निरन्तर ले दनादन कविताओं की
हो रही मूसलाधार दिन-रात बिन थमे
ऐसी बेहिसाब छपा-छप बरसात कि
इस धुंवाधार अल्हड़ बरसात में
भींगकर हम न जाने कहाँ खो गए ।

शब्द भंडारण के हर्फ़ चूक गए मेरे लिए
शब्दों के नक्काशीदार आभूषणों से 
अड़िच कर नाक तक उदर भर रहीं 
धकाधक गणमान्यों की रचनायें अब,
शब्दों का इस कदर नोंच-चोथ देख
रिक्त कोष में हम न जाने कहाँ खो गए ।

सूखी अन्तराभिव्यक्ति शब्दाभाव में
लेखनी अरूचि दर्शाती इस ठौर से
सबकी भाव नदी में जैसे बाढ़ आ गई
छक के ठूंस-ठूंस भरे शब्दों के कौर से
लगा कवियों का विस्तृत महाकुंभ मेला
भटक घाट पर हम न जाने कहाँ खो गए ।

सोचती किस विधा का रचूं काव्य मैं
अब तो कड़ियां भी मुझसे बेगानी हुईं
शब्दों का खजाना कंजूस मेरे लिए
सहर्ष न्योछावर हो सब पर नूरानी हुईं
इस अपाच्य मर्ज का उपचार ढूंढते
प्रिय सुधिजन हम न जाने कहाँ खो गए ।

पंक्तियां भी ठूंठ हुईं मुझसे रूठकर  
मेरी कल्पनाओं में फिर जाने कब
आयेंगी बहाररें फूटेंगी नई कोंपलें
मन प्रांगण होगा सुवासित जाने कब
हर्फ़ों की बसंती लहकती महक से
मधु सपनों में हम न जाने कहाँ खो गए ।

मन के विरान उद्यान में शब्दों की
जाने कब लगेगी झड़ी बौर सी
कूंककर सुप्त मेरी कलम कोकिला
जाने कब फूंकेगी नई उर्जा सौर सी
आस की क्षीण सी थरथराती रोशनी में
तल्लीन हो हम न जाने कहाँ खो गए ।

रचनाओं के परिमार्जन में ही मैं
वक्त जाया करूं या प्रयास के सीने पर
बाट लगा दूं बेरोकटोक रचनाओं की
उघाड़ शब्दों को या पछाड़ अर्थों को
कील ठोंक दूं अटपट कविताओं की
उहापोह में हम न जाने कहाँ खो गए ।

भावार्थ ढूंढूं या रहूं भाव शून्य
आलोचना करूं या समालोचना
आंकलन करूं या विश्लेषण करूं
कि तारीफों के पुल बांधते ठगते रहना
या खोलूं मिथक के सब्र की बेड़ियां
असमंजस में हम न जाने कहाँ खो गए ।

रस,छन्द,अलंकार से विभूषित करूं
या उजाड़ दूं सिरे से इसके मूल गंध ही
कहीं झर ना जाए लता कविता की
प्रयोगवाद से न मर जायें गीत,बन्द ही
कुश्ती लड़ूं या बदलूं अंदाज शौक का 
इस जमघट में हम न जाने कहाँ खो गए ।
                  शैल सिंह