सोमवार, 6 नवंबर 2017

" वजह दिलक़श शह से तेरा मुझे बेज़ार कर देना "

  

संदली सी महकती गुजरे पहलू से,मतवाला कर
मदिरालय में निग़ाहों के निमंत्रण से दीवाना कर ,

तेरी आँखों के सागर में भी देखा इश्क़ की लहरें
सफ़ीने सा उतराऊँ मैं भी उसी लहरों में ही गहरे
आशिक़ाना मिज़ाज देखे इन उफनाती लहरों के 
चल मिलें साहिलों पर तोड़ ज़माने के सभी पहरे ,

गर अल्फाज़ मुकर जाएं हृदय का हाल बताने से
झुका पलकें बता देना अन्तर का राज निग़ाहों से
अन्तर की नदी का कल-कल नाद दिल सुन लेगा
हटा घूँघट हया की चाँद निकल आना घटाओं से ,

बसा गेसुओं के झुरमट में दिल आबाद कर देना
नज़राना आरजू को मेरी दिल में उतार कर देना
गुम मदहोश अदायें कीं आजकल नींद रातों की
वजह दिलक़श शह से तेरा मुझे बेज़ार कर देना ,

हमदर्द बनकर नब्ज मुक़म्मल टटोल लिये होतीं
मौन हसरतों,अहसासों का कुछ मोल दिये होतीं
छोड़ निकम्में लफ़्जों को बंदिशें तोड़ संशयों की
दिल बोझिल न यूँ रहता फ़ख्र से बोल दिये होतीं ।

                                             शैल सिंह


रविवार, 24 सितंबर 2017

ग़ज़ल '' जब इश्क़ ने ले ली अँगड़ाई ''

        ग़ज़ल  

  '' जब इश्क़ ने ले ली अँगड़ाई ''


अधरों की नाजुक फाँकों पे
तबस्सुम क्यों खिलाई आपने
बिन सोचे शरारत कर बैठा
नजाकत क्यों दिखाई आपने ,

दो चंचल नैनों की फिरकी में
उलझाकर रोगी बना दिया
मचलने लगे जब ख़ाब मखमली 
शिकायत क्यों लगाई आपने ,

आपकी सारी कारगुज़ारी
अहमक़ हम बदनाम हुए
हसीं नाजो-अदा से पागल कर
क़यामत क्यों बरपाई आपने ,

दिल में क़ैद किया मालूम नहीं
हम रूह में शामिल कर बैठे
गेसुओं की ओट से झलक दिखा
सियासत क्यों कराई आपने ,

क़ातिल रवैयों को अल्फाज़ बना
क्या खूब रिझाया मासूम को
जब इश्क़ ने ले ली अँगड़ाई
शराफ़त क्यों दिखाई आपने ,

अन्दाज़ परख़ ख़ामोशी का
गुस्ताख़ी हुई पहलू तक की  
इश्क में जोगी बना दिया फिर
ज़लालत क्यों कराई आपने,

जब खबर हो गई दुनिया को
कतरा कर भीड़ से चले गये
रुख भोलेपन का डाल लबादा 
हजामत क्यों कराई आपने ।

                       शैल सिंह 

मंगलवार, 16 मई 2017

कविता '' हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी ''

              कविता
'' हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी ''


इक दिन पास उसी के जाना सबको
जो तीनों लोकों का स्वामी है
भले-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा
रखता ऊपर वाला अन्तर्यामी है ,

मत तेरा-मेरा कहा करो जी
सब यहीं धरा रहा जायेगा
माटी का तन माटी में मिल
इक दिन ब्रह्मलीन हो जायेगा ,

ऐसे तत्वों का बस संग्रह करना
जिससे सुख आनन्द मिले भरपूर
तेरी हँसी दवा बन जाये रुग्ण की
जो निःशुल्क मगर बहुमूल्य है गुर ,

बुद्धि की सम्पत्ति बाँट सभी में
संग धैर्य का रखना हथियार सदा
रक्षा कर विश्वास,उपकार की रखना
रिश्तों में प्रीत की घोल सम्पदा ,

ऐसी मुस्कान बिखेरो मुखारबिन्दु
कि,पराये भी शामिल होके हँसे
आँसू तो आँखों के होकर भी
बहते ही पराया हो विहँसे ,

हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी
चलो हम-हम का रिस्ता जोड़ें
इंसानियत,मानवता सबपे भारी
दम्भ हैसियत का सस्ता छोड़ें ,

श्रद्धा,ज्ञान,दया,सम्मान,नम्रता
जीवन तन के शृंगार आभूषण हैं
प्रार्थना,विश्वास अदृश्य भले पर
कर देते असम्भव को भी धूसर हैं ,

वसीयत,भोग-विलास,विरासत
मे, ना भूलें कर्मों की प्रधानता
परमपिता रखता हिसाब-किताब
जिनके कर्मों में होती महानता |

गुर---गुण

                   शैल सिंह

रविवार, 14 मई 2017

हिंदी ग़ज़ल '' इस कदर चुप ना तनहा रहा कीजिये ''

हिंदी ग़ज़ल  '' इस कदर चुप ना तनहा रहा कीजिये ''

आजकल लोग हँसने में भी कंजूसी करते हैं ,मनहूस जैसी शक्ल बनाये सामने वाले को भी मनहूस कर देते हैं ,उसी विषय पर सरल भाषा में मेरी ये एक हिन्दी गजल की कोशिश पेश है |



हँसी सांसों में घोल सरगम की तरह
हँसाईए औरों को खुद हँसा कीजिये ,

उदासियों में हँसी की वजह ढूँढकर
खुशनुमा ज़िन्दगी फिर बना लीजिए
कर कमबख्त ख़ामोशियों को दफ़ा
खूब असल ज़िंदगी का मजा लीजिए ,

ग़र्दिशे दर्द जख़्म हों हँसी पर फ़िदा
बिछा चौसर हँसी का जिया कीजिए
कितनी सस्ती हँसी हँसते-हँसते हुए
इसमें डुबकी लगा कर नहा लीजिए ,

हँसी चारों तरफ़ अपने बिखरी पड़ी
सब से संवाद कर बस उठा लीजिए
कितनी कीमती हँसी तत्व है जान लें
इसको बेहतर बनाकर हँसा कीजिए ,

सुप्तावस्था में हैं क्यूँ हँसी के सामान
उसको स्फूर्त कर फिर जगा लीजिए
खोल के होंठ के चुप्पियों की सांकल
ऐसा दिल-गुदाज मन्जर बना लीजिए ,

कभी दौड़ती भागती ज़िन्दगी से इतर  
खुद की परवाह भी तो किया कीजिए
कितनी नीरस लगे बिन हँसी ज़िन्दगी
इस कदर चुप ना तनहा रहा कीजिये ,

खिले होंठों पे शतदल कमल सी हँसी
गुलाब की पाँखुरी सी महका कीजिए
हँसी ज़ख्मे-ज़िगर की दवा मुस्तक़िल
बनाके शरबत हँसी को पीया कीजिए ,

इक दिन महरूम हो जाएगी ज़िन्दगी
क्या पता था कभी इक तबस्सुम लिए
वॉट्सऐप,फेसबुक,चैटों,की गतिविधि
पर होगी कुर्बान हँसी भी सदा के लिए ,

फिर से जीवन्त बना ज़िन्दगी साथियों
हँसी का झरना भी निर्झर बहा दीजिए
बिडम्बनायें कोई या विसंगति हो कोई 
हास्य सब में छिपा बस परखा कीजिए |

दिल-गुदाज ---गुदगुदाने वाला

                            शैल सिंह



मंगलवार, 2 मई 2017

ग़ज़ल '' शमां खुद्दारियों की बुझने न देना ''

      ग़ज़ल 


यूँ तो मुक़द्दर से शिक़वा बहुत
ज़िन्दगी तूं हमेशा महकती रहे
तेरे बिंदास मिज़ाज पर जिंदगी
ग़मे मौसम इरादा बदलती रहे।

ठोकरों से मिली नसीहत बहुत
रख अधर आबोताब हँसती रहे
थक जाएँगी बुरी नीयतें जिन्दगी
ठोकरें खुद तबियत बदलती रहें।

हर लमहा रखना गुमां का जेहन
दर आने को रौशनी मचलती रहे
शमां खुद्दारियों की बुझने न देना 
खुद दस्ते-सितम हाथ मलती रहे |

दस्ते-सितम --सताने वाला हाथ

                             शैल सिंह 

शनिवार, 29 अप्रैल 2017

गज़ल '' रख दिया जगत के सामने ''

      गज़ल 


ख़ामोशियों से धो दिया 
हसरतों के दाग को ,

सुर,साज़,गज़ल ढाल लिया
दर्द की हर आह को
सजल हुए जब नैन कभी
बदल दिया मिज़ाज को ,

मनहूसियत,चिंता,हताशा
औ घेरे हुए अज़ाब को
पिला ख़ुशी की घुट्टियाँ
रंगीन कर लिया अंदाज़ को ,

क्या-क्या न गुजरी ज़िंदगी में
ग्रहण लगे जब ख़्वाब को
कर लिया तम को हरने वास्ते
रौशन दिल-ए-आफ़ताब को ,

जब ग़म पहाड़ बन गए
हर वेदना की आग को
रख दिया जगत के सामने
खोल अंतर्द्वंद के किताब को ,

सत्कर्म,निष्ठा ईमान,श्रम की
सजा मिलती है क्यों बेदाग को
व्यर्थ संघर्ष होते,पस्त हौसले
मौन पीये अन्याय के तेज़ाब को ,

जो समझे खुद को तीसमारखाँ
कोई बता दे उस ज़नाब को
सामने रख के इक आईना
उतार लेगा फिर नक़ाब को ,

परख चल आएंगी खुद मन्ज़िलें
उठेंगे हज़ारों हाथ आदाब को
ना टूटो ना तुम बिखरो शैल
पंख लगेंगे नैनों में बसे ख़्वाब को |

                             शैल सिंह

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

'' हर शब स्याही चांद की भी रोशनाई में ''. एक मधुर गीत

एक मधुर गीत

हर शब स्याही चांद की भी रोशनाई में 


कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में,

तुम जबसे गये ये छोड़ नगर
मुझे वीरां-वीरां लगे शहर
हवा भी रूठ गयी गुलिस्तां से
अजनवी लगे हर गली डगर
फब़े ना ज़िस्म लिबास भरी तरूनाई में
अब वो आबोहवा रूवाब नहीं अरूनाई में,

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में,

तुझे जबसे नज़र में क़ैद किया
कभी ख़्वाब ना देखा और कोई
तेरी याद में गुजरी शामों-सहर
दूजा शौक़ ना पाला और कोई
बोले ना चूडी़ खनखन सूनी कलाई में
पैंजनी भी रूनझुन ना झनकी अंगनाई में,

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में,

इस क़दर हुआ बदनाम इश्क़ 
हमें दर्द का तोहफ़ा मुफ़्त मिला
ख़्वाहिशों पर पहरे लगे दहर के
मौसम भी रंग बदला बहुत गिला
हर शब स्याही चाँद की भी रोशनाई में
जहर लगे कूक कोयल की भी अमराई में,

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में,

इक दिन खिले थे हम गुंचों की तरह
किरनों की तरह बिखरा जलवा
तेरे शुष्क मिज़ाज से हैरां है दिल
इस दौरां क्या गुजरी तुम बेपरवाह
आनन्द नहीं महफ़िलों की रंगों रूबाई में
ना थिरकन में लोच कोई हो धुन शहनाई में ,

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में
नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में ।
                                               शैल सिंह