शुक्रवार, 3 जून 2022

'' ऐ हमनफ़स हमराही मेरे हमसफ़र ''

ऐ हमराही,हमनफ़स मेरे हमसफ़र 


फिर न जाने क्यों दिल आज बेचैन है
दो लाईन ग़ज़ल की ज़रा सुना दीजिए ,

ये गुंचे सितारे सिरफिरी ये मौज़े-हवा
दबी ख़्वाहिशों की सांकल दी हैं बजा
उम्र गुजरी मगर अधर नाम तेरा सजा ,

दफ़अतन छीन लिए आके शबे-चैन हैं
कोई नग़मा,नज़्म ज़रा गुनगुना दीजिए ,

दबाये रखा था आंधी जो करके जतन
बिजली अना की गिरा दे दगा ये पवन
आज़ दहका गयी फिर दिल की अगन ,

बे-कमां मारे दिल  पर फिर क्यों वैन हैं
छिन्न बीन के तार ज़रा झनझना दीजिए

तेरा शहर छोड़ी थी बस यादों के सिवा
ज़ख़्म दिल के ढूँढ़ने फिर क्यूँ आई हवा
हर घाव था भर दिया वक़्त ने बन दवा ,

माज़ी से कर गई फिर मुज़तरिब रैन है
यास की गली में ज़रा गुंचे बिछा दीजिये

दफ़अतन--अचानक , अना--अस्तित्व
वैन--बाण , बे-कमां--बिना धनुष के 
माज़ी--अतीत , मुज़तरिब--विचलित, 
यास—-मायूसी

                                   शैल सिंह 

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

आँखों की करामात पर ग़ज़ल


     आँखों की करामात पर ग़ज़ल


आँखों को मैंने अपनी घटा बना लिया है
उमड़ कहीं न कह दें दिल का राज सारा
इसलिए रख अधरों पे मुस्कान की डली
भींगती रोज भीतर देख अन्दाज़ तुम्हारा ,

निग़ाहों के लफ़्ज़ों से कशमकश में हूँ मैं
फंसी कैसी दुबिधाओं के कफ़स में हूँ मैं
तुम कैसे बाज़ीगर हारा एहतियात सारा
तिलस्मी बड़ा दीद का अल्फ़ाज़ तुम्हारा ,

धड़कनों की सरहद पार आ थे जब गये
निग़ाहों के समंदर उतर नहा थे जब गये
तो कह जाते दिल का भी जज़्बात सारा
बेज़ार करता है नि:शब्द सौगात तुम्हारा ,

ऐसे गुमनाम हुये तुम दे प्रीत की तावीज़ 
क़त्ल किये सुकूं का औ बने भी अज़ीज़ 
निग़ाहों में रख चलते तुम हथियार सारा 
ख़ंजर से तेज किया है मौन वार तुम्हारा ,

तेरे नैन जो किये थे नादाँ दिल से सुलूक 
खिल गये थे गुल प्यार के उद्गार हैं सुबूत 
कर दिया है बयां लिखकर हालात सारा
शायद हो कभी मुझसे मुलाक़ात तुम्हारा ।

कफ़स--- पिंजरा
सर्वाधिकार सुरक्षित 
              शैल सिंह 


गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

ढलती ज़िन्दगी पर कविता

ढलती ज़िन्दगी पर कविता



थोड़ी मोहलत मिली थोड़ी फ़ुर्सत मिली
तो मिला तोहफ़े में तन्हाई और अपनों का बिछुड़न
गाड़ी बंगला मिला ऐश्वर्य,शोहरत मिला
तो मिला ढलते वय में पदार्थ सब टिसता चुभन 
ज़िन्दगी तेरी आवश्यकताओं के वसन्त बीत जाने के बाद ,

सोचती हूँ जी लूँ जी भर कर तुझे
अधूरी ख़्वाहिशें खरीद लूँ झोली भर के
कभी सपने नयन में जो अंगड़ाई लिये थे
सोचती हूँ कर लूँ उपलब्ध उन्हें साकार कर के
मगर तुझसे शिकवा आज यही ज़िंदगी 
कोई आह्लाद नहीं गुजरे कल की अनुभूति सी
मधुर ज़िन्दगी का बेशक़ीमती वसन्त बीत जाने के बाद ,

कुछ मर्यादाओं,प्रथाओं का बंधन 
कुछ विवशताओं की अपनी कहानी
बेमुरव्वत था वक़्त और किस्मत,सम्बन्धी भी
कुछ लाचार परिस्थितियों में बीती जवानी
बहुत शिकवा है ज़िन्दगी तेरे वर्तमान से
उलाहने प्रचुर,बीत गए कल को मेरे आज से
वर्तमान तूं भी मिला हसरतों का वसन्त बीत जाने के बाद ,

उत्तरदायित्वों के निर्वहन में आकर्षण गया देह का 
सुन्दर परिधान आभूषण अब किस काम के
ना तो यौवन के तरुणाई की चमक औ धमक
नैनों में ज्योति ना पैरूख रहे अब किसी धाम के
व्यस्त संतानें ख़ुद के व्यवसाय में,सब बिछड़े स्वजन
दसन,पाचन भी अशक्त,सुखभोग निष्काम के
जो मिला,ज़िन्दगी के शौकों के वसन्त बीत जाने के बाद। 

दसन--दाँत

 शैल सिंह 


शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

फिर भी मन का प्यासा प्याला रीता

फिर भी मन का प्यासा प्याला रीता


ये कैसा मलाल है ज़िंदगी 
कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी
भीड़ में भी हूँ और तन्हा भी
मन का ना कर पाने का मलाल 
सब कुछ देखते समझते 
स्थितियों की बेबसी का मलाल
कला,दक्षता,ख़ूबी,हावी,हुनर,फ़न 
को बेबसी की मृतशैय्या पर 
कराहते देखने का मलाल
संवार कर रखूँ तो भी बीमार
निखारकर रखूँ तो भी बिमार 
इन्हीं बेबसी के लम्हों की तड़प को 
अपने लफ़्ज़ों से नवाज़ा है मैंने
कविता,शायरी,गीतों,ग़ज़लों की 
शक्ल और सूरत के रूप में
अपनी भावनाओं को उतारा है मैंने
बग़ावत करूँ तो तनाव में 
चुप रहूँ तो तनाव में
ये कैसा मलाल है ज़िंदगी 
कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी
एक-एक पल एक-एक दिन के रूप में
ज़िन्दगी का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा
आँखों के सामने से निकलता जा रहा
मन के भीतर कुछ टूटता रहा,कुछ कसकता रहा 
मैं बिखरती रही,उमर बीतती गई 
ना मन का तम छँटा ना मन की आग बुझी
बीते वक़्त को याद कर पछताने के लिए 
मन को धैर्य से बाँध-बाँध अवसर गँवाती गई 
बस कल्पनाओं की चादर तले
नभ की चाह बाँधे आँचल में
जीवन का लहराता हुआ सागर
फिर भी मन का प्यासा प्याला रीता
ना जाने ये कैसी अनबूझ प्यास है
ना जाने ज़िन्दगी से ये कैसी आस है
ये कैसा मलाल है ज़िंदगी 
कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी 
कुछ कीर्तिमान रचाने की अभिलाषा 
कुछ जीवन के इतिहास में 
सुनहरा अध्याय जोड़ने की अभिलाषा 
प्रतिकूल परिस्थितियों में जज़्ब होकर
रह गए साँसों के जज़्बे 
काँटों भरी पथरीली पगडंडियों पर
बिखरकर रह गए हौसले मेरे 
सपनों के कगार पर खड़े रह गए 
जुनून और दृढ़ ईच्छाशक्ति के फ़ौलादी इरादे
मन के दर्पण में निहारती 
अपने सपनों का संसार 
मनोभावों को साकार रूप दिया है 
मेरी लेखनी की मूक स्याही ने
जो मन के हाहाकार से छेद,बेंध पन्नों को
कराती हैं आत्मबोध 
यहीं आकर ठहरती है मेरी ज़िद
यहीं पूर्ण होता सन्तोष
ये कैसा मलाल है ज़िंदगी 
कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी ?

                 शैल सिंह